नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र):
भारतीय गणतंत्र की कहानी भी बड़ी अनोखी है। कभी इसने अपने शौर्य से तो कभी अपने हौसले से हमेशा कई अमरगाथाएं लिखीं हैं। वक्त और धारा के खिलाफ जाकर कुछ कर गुजरने की अभिलाषा ने ही इस गणतंत्र को पराक्रमी बनाया है। गणतंत्र भारत ने गणतंत्र के इन पराक्रमी वीरों और उनके प्रयासों को अपने पाठकों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है। गणतंत्र के पराक्रम की पहली कड़ी बिहार के उस लौंगी भुइंया के नाम जो तीन दशकों तक अपने हाथ में फावड़ा उठाए एक मकसद के लिए जुटे रहे।
बिहार की राजधानी पटना, कोई 200 किलोमीटर दूर है लौंगी भुइंयां के गांव से। पटना में बैठी सरकारों ने विकास की तमाम योजनाएं भले ही बनाई हों लेकिन उनमें से किसी भी योजना का रास्ता भूले से ही सही भुइंयां के गांव की तरफ शायद नहीं आता था। बस मन की इसी टीस और खीज ने भुइंयां को एक संकल्प लेने की प्रेरणा दे दी। सामने खड़े पहाड़ को चीर कर गांव तक विकास की धारा को पहुंचाने की।
गांव में खेत थे तो सिंचाई के साधन नहीं थे। खेती बेकार हो चली तो बच्चे गांव छोड़ शहरों की तरफ चले गए। भुइंया का संकल्प था गांव में पानी को लाना। उनका संकल्प किसी भगीरथ से कम नहीं था। सामने सीना ताने एक पहाड़ खड़ा था। पानी तो पहाड़ के उस पार था। मन ने तय कर लिया पानी को इस पार आना होगा। पर कैसे यह यक्ष प्रश्न था।
तीन दशकों तक चला फावड़ा
पहाड़ के उस पार के पानी को गांव तक लाने के लिए जरूरी थी कम से कम तीन किलोमीटर लंबी नहर। भुइयां का साथ देने वाला तो कोई था नहीं इसलिए बस खुद ही उठा लिया फावड़ा और जुट पड़े अपने मकसद को पूरा करने में। रोजाना पहाडों के बीच नहर बनाने की कवायद। दिन नहीं, महीने, साल और फिर दशक बीत गए लेकिन भुइंया के फावड़ों की आवाज खामोश नहीं हुई।
बांकेबाज़ार प्रखंड में भुइयां के कोठिलवा गांव के लोगों के पास करने के लिए सिर्फ एक ही काम था वह था खेती बारी। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी लोग धान-गेहूं नहीं बो पाते थे। वजह, इतनी कि पानी बरसता तो था, लेकिन टिकता नहीं था। इसके अलावा सिंचाई का कोई साधन नहीं था। बस गांव की इसी कमी को दूर करने के संकल्पप के साथ भुइयां ने अपने काम को शुरू किया। काम शुरू हुआ तो चलता ही गया।
गांव में इस दौरान कितने बच्चों ने जन्म लिया, उनकी शादी हुई बच्चे भी हो गए लेकिन भुइयां अपनी मुहिम में बदस्तूर जुटे रहे। लक्ष्य बस एक था गांव तक पानी को पहुंचाना। पटना में इस दौरान कई सरकारें आई गईं लेकिन भुइंया की सोच को शायद कोई समझ ही नहीं पाया। भुइयां ने जब अपना काम शुरू किया था उनकी उम्र सिर्फ 42 साल थी। आज वे 72 साल के हो गए।
पिछली अगस्त में पहुंचा गांव में पानी
फिर आई पिछले अगस्त की वह सुबह जब गांव के लोगों ने देखा कि उनके गांव का तालाब साफ पानी से लबालब भर गया है। पहाड़ों के उस पार का पानी नहर के जरिए गांव के तालाबों तक पहुंच चुका है। ये पानी सिर्फ भुइयां के गांव को ही नहीं बल्कि तीन तीन गांवों के लिए सिंचाई और पेयजल का जरिया बन गया। भुइयां ने तीन किलोमीटर लंबी, पांच फुट चौड़ी और तीन फुट गहरी नहर तैयार कर दी थी और इसे बनाने में उन्होंने 30 साल तक अनथक श्रम किया। गजब का जीवट था।
मैडल नहीं ट्रैक्टर की चाह
भुइयां अपनी इस उपलब्धि पर निर्विकार रहे। कुछ लोग चाहते थे कि उनके काम के लिए सरकार उन्हें मैडल दे लेकिन भुइयां को इन सबकी परवाह नहीं थी। वे चाहते थे गांव के बच्चे जो सिंचाई के साधनों के अभाव में गांव छोड़ कर चले गए थे वे अब गांव लौट आएं और खेती बारी को संभालें। बस उन्हें चाह थी एक अदद ट्रैक्टर की क्योंकि इससे उन्हें खेतीबारी में आसानी होगी।
और मिल गया ट्रैक्टर
इधर भुइयां ने ट्रैक्टर चाहा और उधर महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने उन्हें एक ट्रैक्टर देने की घोषणा कर दी। हुआ यू कि बिहार के स्वतंत्र पत्रकार रोहिन कुमार ने ट्विटर पर आनंद महिंद्रा से अपील की थी कि बिहार (गया ज़िले) के लौंगी ने अपनी ज़िंदगी के 30 साल लगाकर एक नहर खोद दी। उन्हें अभी भी कुछ नहीं चाहिए, सिवाए एक ट्रैक्टर के। उन्होंने मुझसे कहा कि अगर उन्हें एक ट्रैक्टर मिल जाए तो उनकी बड़ी मदद हो जाएगी।