नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए लेखराज) : ग्लास्गो, स्कॉटलैंड में अगले हफ्ते क्लाइमेट चेंज जैसे गंभीर मसले को लेकर सीओपी 26 शिखर सम्मेलन का आयोजन होने जा रहा है। ये बैठक जलवायु परिवर्तन पर लगाम के लिए प्रभावी कदम उठाने के संकल्प के साथ शुरू होनी है। इसके प्रमुख एजेंडे में 2015 में हुए पेरिस सम्मेलन के संकल्पों के लिए नियमों को तैयार करना और जलवायु परिवर्तन की मौजूदा स्थिति की समीक्षा करना है। इस बैठक का आयोजन पिछले वर्ष किया जाना था लेकिन कोरोना महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था। ऊर्जा के लिए कोयले पर निर्भरता के कारण भारत के लिए ये सम्मेलन बहुत खास होने वाला है और उसे वहां कुछ कडे सवालों को झेलना पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन के विषय पर होने वाली बैठकें वर्ष 1990 में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर आधारित है जिसमें ग्रीन हाउस गैसों के बढते उत्सर्जन को सीमित करने का संकल्प लिया गया था। इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए 1992 में रियो डि जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन, 1997 में क्योटो, 2007 मे बाली, 2009 में कोपेनहेगन और 2015 में पेरिस में इस विषय पर सम्मेलन किए गए।
इन सम्मेलनों का मकसद स्चच्छ और हरित ऊर्जा एवं ईंधन के इस्तेमाल के विकास और इस्तेमाल का है ताकि पृथ्वी के वातावरण में हो रही कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि को रोका जा सके। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए पृथ्वी के तापमान में कम से कम 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है और इससे पृथ्वी के वातावरण को भारी नुकसान हो सकता है।
किन देशों पर है नजर
वातावरण बदलाव के मुद्दे पर दुनिया के तीन देशों पर खास नजर है। अमेरिका, चीन और भारत। अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश है जो कार्बन उत्सर्जन सबसे ज्यादा करता है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत हमेशा से दलील देता रहा है विकसित देश इन परिस्थियों के लिए ज्य़ादा जिम्मेदार हैं। भारत अपनी आबादी और पारंपरिक संसाधनों का हवाला देते हुए अपनी स्थिति को स्पषट करता रहा है।
भारत की स्थिति
भारत ने 2030 तक अपनी ऊर्जा जरूरतो का 40 फीसदी हिस्सा रिन्यूएबल और न्यूक्लियर एनर्जी से पूरा करने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। कार्बन उत्सर्जन की स्थिति पर नज़र रखने वाली स्वतंत्र संस्था क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (सीएटी) के अनुसार भारत ये लक्ष्य समय से पहले भी हासिल कर सकता है। सीएटी का अनुमान है कि 2030 तक भारत से होने वाला उत्सर्जन 2005 के स्तर का आधा हो जाएगा जो उसके पिछले लक्ष्य 35 फीसदी से भी ज्यादा होगा। इस लक्ष्य को लेकर आशंका भी उठ रही है क्योंकि अभी तक भारत नें ये स्पष्ट नहीं किया है कि वो कार्बन उत्सर्जन को खत्म करने के लिए क्या रणनीति अपनाएगा और कब अपनाएगा।
भारत की फिलहाल कोयले पर ही निर्भरता
भारत में बिजली उत्पादन फिलहाल 70 फीसदी तक कोयले पर ही निर्भर है। एक खबर अनुसार, भारत ने संयुक्त राष्ट्र को भी इस बारे में अपनी राय से अवगत करा दिया है कि वो अगले कुछ दशकों तक देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयले का इस्तेमाल करता रहेगा। जानकारी के अनुसार, भारत उन कई देशों में शामिल है जो संयुक्त राष्ट्र में कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर पूरी तरह से रोक लगाने के ख़िलाफ़ लगातार लॉबीइंग कर रहे हैं।
कब क्या हुआ
रिय़ो सम्मेलन (1992)
जलवायु परिवर्तन के मसले पर 1990 में संयुक्त राष्ट्र के संकल्प के बाद पहली बार इस मसले पर 1992 में रिय़ो डि जेनेरो में अर्थ या पृथ्वी सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन ने जलवायु परिवर्तन के मसले पर दुनिया के देशों की निगाह को खींचा। इस सम्मेलन को यूएन फ्रेमवर्क कनवेंशन फॉर क्लाइमेंट चेंज भी माना जाता है। इसमें पहली बार जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया के देशों की जिम्मेदारियों को तय करने का बात की गई।
क्योटो प्रोटोकॉल (1997)
क्योटो प्रोटोक़ॉल ने पेरिस सम्मेलन की भूमिका तैयार की। इस सम्मेलन में 2012 तक विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया। विकासशाल देशों को इस मामले में राहत मिली और उनकी इच्छा पर इसे छोड़ दिया गया।
बाली (सीओपी 13) ( 2007)
क्योटो प्रोटोकॉल से विकसित देश काफी असहज थे। बाली सम्मेलन में इसका रास्ता निकालने का प्रयास किया गया। विकसित देश मान रहे थे कि चीन और भारत जैसे देशों में सख्ती के बिना कार्बन उत्सर्जन जैसे मसलों पर काबू करना मुश्किल होगा।
कोपेनहेगन (सीओपी 15) (2009)
कोपेनहेगन में हुए सम्मेलन में इस मसले पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और गहरा गए। एक तरह से ये सम्मेलन अपने उद्देश्यों में नाकाम रहा। 110 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई। विकसित देशों ने इतना जरूर किया कि उन्होंने साल 2020 से विकासशील देशों के लिए प्रति वर्ष 100 बिलियव ड़ॉलर की मदद जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों के समाधान पर खर्च करने का आश्वासन दिया।
पेरिस (सीओपी 21) ( 2015)
क्योटो सम्मेलन में विकसित देशों पर जो सख्ती की गई थी उसकी वजह से अगले दो सम्मेलनों में प्रतिनिधि देशों में मतभेद बना रहा। पेरिस मे इस बात को लेकर सहमति बनी कि किसी भी देश पर चाहे वो विकसित हो या विकासशील उस पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं रहेगी और उसे किसी तरह का कोई लक्ष्य नहीं दिया जाएगा। जलवायु परिवर्तन को लेकर करने वाले उपायों के बारे में वे देश खुद अपना लक्ष्य तय करे लेकिन उन्हें इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को सूचित करना पड़ेगा।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया