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ये सिर्फ ‘सोशल मैसेजिंग’ है या असली पिक्चर कुछ और है…..?

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : वैवाहिक विज्ञापनों से संबंधित वेबसाइट भारत मैट्रीमनी के विज्ञापन ने विवाद खड़ा कर दिया है। विज्ञापन के पक्ष और विपक्ष में धड़ेबंदी जोर पकड़ रही है और कट्टरवादी विचारों की लॉबी को बहस का एक नया मुद्दा मिल गया है। सोशल मीडिया पर विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाने की मांग जोरशोर से उठाई जा रही है। सवाल ये है कि आखिर किसी भी ब्रांड के प्रमोशन के लिए ऐसे विषय क्यों उठाए जाते हैं जो सामाजिक रूप से संवेदनशील होते हैं। एक सवाल ये भी है कि कहीं इसके पीछे पब्लिसिटी का वो फंडा तो नहीं कि विवाद हुआ तो क्या हुआ पब्लिसिटी को तब भी हुई। लेकिन, सबसे बड़़ा सवाल ये कि क्या हिंदू त्यौहार, संस्कार और रीतिरिवाज या धार्मिक परंपराएं कहीं ऐसे विवादों के लिए सॉफ्ट टारगेट तो नहीं?

विज्ञापन में क्या है ?

संयोग से इस बार 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के साथ ही होली भी पड़ गई। वैवाहिक विज्ञापनों की वेबसाइट भारत मेट्रीमोनियल ने इस मौके पर एक विज्ञापन जारी किया जिसमें रंगों से सराबोर एक युवती वॉशबेसिन में जब अपने चेहरे को साफ करती है तो उसकी आंखों और चेहरे पर चोटों के निशान नजर आते हैं। विज्ञापन घरेलू हिंसा से संबंधित था और इसका संदेश भी बहुत स्पष्ट था। विज्ञापन में ये बताने की कोशिश की गई थी कि रंगों की दुनिया के पीछे महिलाओं की वास्तविक स्थिति का एक विद्रूप चेहरा भी है।

विवाद के साथ जोरदार बहस

विज्ञापन जारी होते ही मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इसे लेकर विवाद के साथ जबरदस्त बहस शुरू हो गई। कई दक्षिणपंथी सामाजिक और वैचारिक संगठनों ने विज्ञापन के विरोध में मोर्चा खोल दिया और इस पर तुरंत रोक लगाने के साथ भारत मेट्रीमोनी वेबसाइट को प्रतिबंधित करने और उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की मांग शुरू कर दी है।

क्रिएटिव ऐडवर्टीज़मेंट बनाने वाली कंपनी परफेक्ट रिलेशंस के संस्थापक दिलीप चेरियन के अनुसार, विज्ञापनों को समाजिक परिवेश से अलग करके नहीं देखा जा सकता है और न ही देखा जाना चाहिए। इस बार संयोग से महिला दिवस के दिन ही होली पड़ गई और इन दोनों ही संदर्भो के बीच महिला सुरक्षा को एक सामाजिक पर्व के साथ जोड़ने की रचनात्मक कोशिश की गई। बस ये और कुछ नहीं है और इसे किसी दूसरे संदर्भ में देखने की जरूरत ही नहीं है।

लेकिन राजनीतिक विश्लेषक गीता भट विज्ञापन के पीछे की सोच पर सवाल खड़ा करती हैं। उनका कहना है कि, आखिर इस तरह के मसले को किसी पवित्र त्यौहार के साथ जोड़ने का क्या औचित्य है। उन्होंने कहा कि, इसी दिन यानी 8 मार्च को ही शबे बरात पर्व भी था लेकिन क्या किसी विज्ञापन में इस पर्व के साथ कोई ऊल जलूल हरकत करने की कभी भी कोई कोशिश की गई। उन्होंने एक विज्ञापन का हवाला देते हुए बताया कि, कुछ समय पहले एक विज्ञापन में कुछ ऐसा दिखाय़ा गया था जिससे इसाई संप्रदाय की भावनाओं को कथित तौर पर ठेस पहुंची। बाद में उस विज्ञापन को दुरुस्त किया गया और फिर उसे इसाई धर्मगुरुओं को दिखाने के बाद ही फिर से सार्वजनिक मंचों पर विज्ञापित किया गया। लेकिन, उन्होंने सवाल उठाया कि, इस तरह की हरकत हमेशा हिंदू संस्कारों, त्यौहारों और रीतिरिवाजों के साथ ही क्यों होती है और इस पर सवाल पूछने पर इसे विवाद का रूप क्यों दे दिया जाता है ?

लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट दीपा राहुल ईश्वर विज्ञापनों के सोशल इंपेक्ट के संदर्भ पर जोर देती हैं। उनका मानना है कि, विज्ञापन का मकसद प्रचार-प्रसार के साथ  अगर संभव हो सके तो एक सोशल मैसेजिंग देने का भी होता है। इस विज्ञापन में भी ऐसा ही कुछ है। इसमें महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा और दुर्वव्यवहार को रंगों का एक आवरण देने की कोशिश की गई। रंग धुलते हैं तो हकीकत सामने होती है। इसमें मजहबी मायनों को तलाशना कितना वाजिब है ?

पहले भी हो चुका है विज्ञापनों पर विवाद

ऐसा नहीं है कि, भारत मैट्रीमोनी के विज्ञापन पर विवाद अपने आप में कोई नई और अनोखी घटना है। इससे पहले ही हाल-फिलहाल के वर्षों में कई टेलीविजन विज्ञापनों को लेकर वैचारिक आधार पर जम कर विवाद हो चुका है।

आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी डाबर ने करवा चौथ पर एक विज्ञापन जारी किया जिसमें सेम सैक्स कपल को दिखाया गया। सव्यसाची के लग्जरी मंगलसूत्र को लेकर भी खासा हंगामा मचा। जेवर ब्रांड तनिष्क ने अपने ब्रांड प्रमोशन के लिए इंटरफेथ मैरिज के विज्ञापन का सहारा लिय़ा जिस पर काफी विवाद हुआ। कपड़ों के कारोबार से जुड़े मान्यवर ने लड़की के बिना विवाह मायके से बिदाई और ससुराल में गृह प्रवेश का विज्ञापन ब्रांड प्रमोशन के लिए इस्तेमाल  किय़ा जिस पर विवाद हुआ। इसी तरह से सर्फ एक्सेल ने पहले होली के मौके पर ब्रांड प्रमोट करने के लिए एक विज्ञापन दिखाया जिसमें रंगों से सराबोर एक बच्चा मोटर साइकिल चला रहा है और उसकी पीठ पर एक मुस्लिम बच्चा सवार है। मैसेज धार्मिक सद्भाव का था लेकिन उस पर भी काफी बवाल हुआ।

समाजविज्ञानी राहुल देवेश के अनुसार, काफी पहले से सामाजिक रूढ़िय़ों और दकियानूसी रिवाजों पर सवाल उठते रहे हैं। विज्ञापनों के जरिए एक प्रगतिशील समाजिक सोच को विम्रर्श में लाने की कोशिश होती रही है। लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि आज के सामाजिक ध्रवीकरण के इस दौर में ऐसे संवेजनशील मसलों को आधार बनाने से बचना चाहिए जो किसी बड़े विवाद की वजह हो सकते हैं। राहुल देवेश मानते हैं कि, ब्रांड प्रमोशन के नाम पर बाजार में आज जो कुछ हो रहा है उसमें बहुत हल्कापन है और कई बार विवादों की आशंका वाले विषयों का चुनाव भी जानबूझ कर किया जाता है। इससे विज्ञापन तो चर्चित होता ही है साथ में वैचारिक स्तर पर कट्टरवादी ताकतों को लगे हाथ खाद-पानी भी मिल जाता है।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिय़ा

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