नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ): दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करने के मूड में आ गए हैं। उन्हें 31 जुलाई से 3 अगस्त तक चलने वाली वर्ल्ड सिटीज़ समिट में हिस्सा लेने सिंगापुर जाना था लेकिन उनकी इस विदेश यात्रा पर केंद्र सरकार कुंडली मार कर बैठ गई है। केजरीवाल इस बात से बहुत खफा हैं और उन्होंने केंद्र सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए इसे राजनीतिक विद्वेष की कार्रवाई बताया है।
ऐसा नहीं है कि अरविंद केजरीवाल के साथ ऐसा पहली बार हो रहा है। इससे पहले 11 अक्टूबर 2019 को केजरीवाल को डेनमार्क में एक अंतर्राष्ट्रीय कॉंफ्रेंस में हिस्सा लेना था लेकिन केंद्र सरकार ने उनकी यात्रा को क्लीयरेंस नहीं दिया और उन्हें इस कार्य़क्रम में वीडियो कॉंफ्रेसिंग के जरिए शिरकत करनी पड़ी।
आपको बता दें कि किसी भी राजनेता, जनप्रतिनिधि और अफसर को सरकारी और निजी विदेश य़ात्रा के लिए कई स्तरों पर सरकार से क्लीयरेंस लेना होता है। इसमें उनके खुद के मंत्रालय के अलावा विदेश मंत्रालय से मिलने वाली राजनीतिक क्लीयरेंस के अलावा, आर्थिक मामलों के मंत्रालय और कुछ मामलों में गृह मंत्रालय से भी क्लीयरेंस लेना होता है। 2011 और पिछले वर्ष जुलाई में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की विदेश यात्रा पर भी कुछ बंदिशें लगाने का ऑफिस ऑफ मेमोरेंडम जारी किया गया था लेकिन उसे दिल्ली हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया था। अदालत का कहना था कि न्यायपालिक जैसी उच्च संस्था की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता और ऐसी कोई भी पहल अनुचित है।
राजनीतिक क्लीयरेंस पर विवाद
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिंगापुर की अपनी प्रस्तावित यात्रा की मंजूरी में देरी करने के पीछे बीजेपी और केंद्र सरकार पर राजनीति का आरोप लगाया है। केजरीवाल ने कहा कि, समय पर आवेदन के बावजूद इस तरह की हरकत डिलेइंग टेक्टिस का हिस्सा है ताकि वे सिंगापुर में वर्ल्ड सिटी समिट में हिस्सा न ले सकें। केंद्र सरकार ने फिलहाल मामले पर चुप्पी साध रखी है।
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली थी तो उन्होंने इस विषय पर विभिन्न मंत्रालयों के सचिवों से विचार-विमर्श किया था। इसी संदर्भ में तत्कालीन सिविल एविएशन सेक्रेटरी अशोक लवासा ने 14 जून को कैबिनेट सचिव अजित सेठ को एक पत्र लिखा और उसमें उन्होंने राजनीतिक क्लीयरेंस के नाम पर विदेश मंत्रालय की तरफ किए जाने वाले विलंब पर सवाल उठाया। इस पत्र को उन्होंने तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह को भी भेज दिया। विदेश सचिव ने अगस्त 2014 में इस पत्र का जवाब दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि, ये विदेश मंत्रालय का विशेषाधिकार है कि वो ऐसे मामलों में अधिकारी या संबद्ध पक्ष की उपादेयता, जरूरत और कार्यक्रम के स्तर के अनुरूप उसकी सहभागिता को ध्यान में रखते हुए फैसला ले, और विदेश मंत्रालय अपने इस विशेषधिकार का प्रयोग करता रहेगा।
पहले भी हुए हैं ऐसे विवाद
अरविंद केजरीवाल के ताजा विवाद से पहले 2019 में भी अरविंद केजरीवाल की डेनमार्क यात्रा को राजनीतिक मंजूरी नहीं दी गई थी।
अप्रैल 2012 में असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की अमेरिका और इजरायल यात्रा को राजनीतिक मंजूरी नहीं दी गई थी। उन्होंने अपनी यात्रा के लिए मंजूरी मांगते हुए लिखा था कि वे अति महत्वपूर्ण बैठक के लिए वहां जाना चाहते हैं। विदेश मंत्रालय ने उनकी मांग को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि, किसी भी डिप्लोमेटिक मिशन का किसी भी राज्य सरकार से सीधा संपर्क साधना डिप्लोमेटिक प्रोटोकॉल का उल्लंघन है। गोगोई की इस यात्रा को मंजूरी न मिलने से तब खासा बवाल हुआ था क्योंकि असम में कांग्रेस की सरकार थी और केंद्र में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार काम कर रही थी।
इसी तरह से, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने भी अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान थाईलैंड जाने की इजाजत मांगी थी जिसे विदेश मंत्रालय ने राजनीतिक मंजूरी नहीं दी थी।
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