नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी) : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने फसल बीमा को लेकर पुरानी नीतियों में संशोधन करते हुए जब नई नीति का ऐलान किया था तो सरकार को इससे ढेर सारी उम्मीदें थीं। इस योजना का लक्ष्य देश के अधिकतर किसानों को इसके दायरे में लाना था। पहले कृषि ऋण लेने वाले किसान लिए ये योजना जरूरी थी लेकिन अब इस योजना को किसानों के लिए वैकल्पिक बना दिया गया। देखा जा रहा है कि बहुत तेजी के साथ किसान इस योजना से मुंह मोड़ रहे हैं। ऐसा क्यों है ? गणतंत्र भारत ने इस विषय की पड़ताल की तो कुछ तथ्य सामने आए जिससे कृषि विशेषज्ञ भी सहमत दिखे।
बीमा कंपनियों को मुनाफा
विशेषज्ञ मानते हैं कि, इस योजना से किसानों को फायदा पहुंचने की जगह बीमा कंपनियों को मुनाफा हुआ है। बीमा कंपनियों ने सरकार की लचीली नीतियों का फायदा उठाया और अपनी जिम्मेदारियों से बचती रहीं। विशेषज्ञ मानते हैं कि कॉरपोरेट शुरुआत से ही इस योजना का फायदा उठाने की ताक में थे। जिन बीमा कंपनियों को इस योजना के लिए पंजीकृत किया गया वे इसके संचालन से जुड़ी चीजों पर खर्च नहीं कर रही हैं। कंपनियों ने अपनी तरफ से कोई निवेश ही नहीं किया। सारा काम सरकार करती है और अंत में कंपनियां फायदा ले जाती हैं।
इन दलीलों की पुष्टि सरकारी आंकड़े भी करते हैं। बीस मार्च, 2020 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि साल 2016-17 में बीमा कंपनियों को कुल 21,937 करोड़ रुपए हासिल हुए थे। इनमें से दावे के रूप में 16,782 रुपए का भुगतान किया गया। वहीं वित्तीय वर्ष 2017-18 के लिए यह आंकड़ा 25,346 करोड़ रुपए और 21,951 करोड़ रुपए था। इसके अगले साल यानी 2018-19 में यह बढ़कर 28,725 करोड़ रुपए और 25,785 करोड़ रुपए हो गया। इन तीन वर्षों में कुल प्रीमियम और दावा भुगतान के बीच का अंतर 11,490 करोड़ रुपए है। यानी हम इस रकम को बीमा कंपनियों का मुनाफा कह सकते हैं।
हालांकि दावा किया गया कि मुनाफे की इस रकम में कंपनी का प्रशासनिक खर्च भी शामिल है। लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि बीमा कंपनियों ने इसके लिए कोई ठोस बुनियादी ढांचा तैयार नहीं किया है। वे अधिकतर चीजों के लिए सरकारी कर्मचारियों पर निर्भर है। इसी वजह से फसलों के मूल्य का सही आकलन नहीं हो पाता है और आखिर में नुकसान किसानों को ही उठाना पड़ता है। अधिकतर बीमा कंपनियों के जिला स्तर पर कोई दफ्तर नहीं है। इसके चलते किसानों को मालूम ही नहीं चलता है कि उन्हें अपना क्लेम लेने के लिए कहां और किसके पास जाना है।
भुगतान में देरी
कृषि विशेषज्ञ अभिमन्यु कोहाड़ बताते हैं कि जिन दावों को स्वीकृत किया गया उनमें से सिर्फ 40-50 फीसदी को ही भुगतान मिल पाता है। बीमा कंपनी भुगतान करने में देरी करती है। सरकार के पास जो आंकड़े हैं वे सही नहीं हैं। इस योजना की एक बड़ी खामी ये भी है फसल नुकसान का आकलन व्यक्तिगत स्तर पर न करके गांव के स्तर पर किया जाता है। इसके चलते किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है।
सरकार के निर्देशों और प्रावधानों की अवहेलना
बीमा कंपनियां इस योजना को लेकर किस कदर मनमानी कर रही है इसका उदाहरण सामने है। सरकार ने 25 सितंबर, 2019 को बीमा भुगतान में देरी को लेकर पांच बीमा कंपनियों को कुल 4.21 करोड़ रुपए ब्याज चुकाने को कहा। ये भुगतान साल 2017-18 के रबी सीजन के लिए था। मगर कंपनियों ने इसे भी किसानों को नहीं चुकाया। इस योजना के प्रावधानों के मुताबिक तय समय सीमा खत्म होने के दो महीने के भीतर अगर दावे का भुगतान नहीं किया जाता है तो बीमा कंपनी को 12 फीसदी ब्याज के साथ किसानों को क्लेम की रकम देनी होगी।
बैंक भी वसूली में पीछे नहीं
एक और दिलचस्प तथ्य ये है कि, बीमाकृत किसानों को अगर उनकी फसल नुकसान के दावे का भुगतान केसीसी अकाउंट के जरिए मिलता है तो बैंक उसका भुगतान न करके उससे कर्ज वसूली के रूप में रकम काट लेता है। यानी जो रकम एक किसान को फसल नुकसान के लिए बीमा कंपनियों से मिलनी चाहिए थी वो कर्ज भुगतान के रूप में बैंक के पास ही चली जाती है।
बुनियादी खामियां
विशेषज्ञ मानते हैं कि, योजना के लिए बने दिशा-निर्देशों में ही कुछ खामियां रह गई हैं और बीमा कंपनियां उसका भरपूर फायदा उठा रही हैं। जैसे, जल आधारित फसलों को लेकर तय प्रावधान में कहा गया है कि धान, गन्ना, पटसन और मेस्टा (जूट के समान रेशे पैदा करने वाला पौधा) की खेती में जलभराव होने पर कोई क्लेम नहीं दिया जाएगा। इसका सीधा से मतलब हुआ कि इसे बीमा के दायरे से बाहर रखा गया है। जबकि देश के विभिन्न इलाकों में धान की फसल में जलभराव की समस्या बहुत आम है।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिय़ा