कोझिकोड, 19 अगस्त ( गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी ) : कोझिकोड की अदालत ने यौन उत्पीड़न के मामले में एक ऐसा फैसला सुनाया है जो विवादित तो है ही साथ ही अदालतों में न्याय करने के लिए बैठे जजों के विवेक पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। अदालत ने टिप्पणी की है कि पीड़िता ने भड़काऊ कपड़े पहन रखे थे इसलिए उसके खिलाफ हुए अपराध में यौनशोषण का कोई केस नहीं बनता है।
फैसला बहुत विचित्र है। केरल से संबंधित है तो और ज्यादा चौकाने वाला है क्योंकि केरल देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले कहीं ज्यादा शिक्षित और प्रगतिशील माना जाता है। दरअसल, मामला केरल के जानेमाने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सिविक चंद्रन से जुड़ा है। उन पर दो महिलाओं ने अलग-अलग मौकों पर यौन शोषण का आरोप लगाया था। उसमें से एक महिला दलित समुदाय से आती है।
उन महिलाओं में एक का आरोप है कि पिछली 17 अप्रैल को चंद्रन ने एक कार्यक्रम में उनके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश जबकि दूसरी महिला का कहना है कि एक अन्य कार्यक्रम के दौरान चंद्रन ने उन्हें गलत तरीके से छुआ और उनका यौन शोषण किया। पुलिस ने चंद्रन के खिलाफ शिकायत 17 जुलाई को ही दर्ज कर ली थी लेकिन उन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया था। मीडिया रिपोर्टों में बताया जा रहा था कि चंद्रन फरार हैं। उन्होंने कोझिकोड सेशंस कोर्ट में अग्रिम जमानत की अर्जी दी थी जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया है।
क्यों उठा अदालत के रुख पर सवाल ?
विवाद जमानत की अर्जी स्वीकार करने की दलीलों पर उठा। चंद्रन के वकील ने अपनी अर्जी के साथ शिकायत करने वाली महिलाओं की कुछ तस्वीरों को अदालत के सामने रखा। बस फिर क्या था, तस्वीरों को देख कर जज एस कृष्ण कुमार ने महिलाओं के चरित्र पर ही सवाल खड़े कर दिए। जज कृष्ण कुमार ने टिप्पणी की कि, तस्वीरों में दिखाई दे रहा है कि शिकायतकर्ता ऐसे कपड़े पहनती हैं जो ‘यौन भावनाओं के नजरिए से भड़काऊ’ हैं और इस वजह से मुल्जिम के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 ए नहीं लगाई जा सकती। इस धारा में यौन शोषण की परिभाषा और उसके लिए सजा का उल्लेख है।
आपको बता दें कि, इस धारा में भड़काऊ कपड़े पहन कर या किसी भी रूप में महिला द्वारा यौन शोषण के लिए आमंत्रित करने का कोई उल्लेख नहीं है।
संभव है कि, सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल दे और निचली अदालतों को कानून फिर से समझा सके। ऐसा भी नहीं है कि एस कृष्ण कुमार इस तरह के पहले जज हैं जिनके फैसले से महिलाओं के सम्मान की लड़ाई को धक्का लगा है। अदालतों ने ऐसे फैसले और टिप्पणियां पहले भी की हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट का ‘स्किन-टू-स्किन’ फैसला इसका चर्चित उदाहरण है। इस फैसले में न्यायमूर्ति पुष्प गनेड़ीवाला ने फैसला दिया था कि कपड़ों के ऊपर से किए गए स्पर्श को सेक्सुअल असॉल्ट नहीं माना जाएगा। फैसले को लेकर काफी बवाल हुआ।
फैसले और भी हैं लेकिन मकसद उन्हें गिनाना नहीं बल्कि ऐसे मामलों में अदालत के विवेक को झकझोरने का है। कैसे कोई अदालत इस तरह की टिप्पणी कर सकती है कि फलां लड़की ने ऐसे कपड़े पहन रखे थे जिसकी वजह से उसके साथ अनहोनी घट गई। समाज में तो ऐसा तबका है ही जो इस तरह की दलीलें देता है लेकिन अगर अदालतें भी इस तरह के तर्क देने लगेंगी तो कैसे काम चलेगा।
केरल महिला आयोग की अध्यक्ष पी सतीदेवी ने अदालत के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और कहा कि सबूत पेश करने और सुनवाई शुरू होने से पहले ही इस तरह के संदर्भ देकर अदालत शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों को प्रभावी ढंग से खारिज कर रही है। ये दुष्कर्म जैसे गंभीर मामलों में एक बहुत ही गलत संदेश देता है।
समाज विज्ञानी प्रोफेसर पी कुमार के अनुसार, अदालतें समाज के प्रगतिशील चेहरे का प्रतिबिंब होती है। कैसे कोई अदालत महिला के साथ हुई अभद्रता को इस आधार पर जस्टीफाई कर सकती है कि उसने भड़काऊ कपड़े पहन रखे थे। ये अदालत और जज के विवेक पर बड़ा सवाल है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में न सिर्फ दखल देना चाहिए बल्कि निचली अदालतों को एक कड़ा संदेश भी देना चाहिए।
पी कुमार के अनुसार, ये सर्वोच्च अदालत का फर्ज है कि वो मातहत आदालतों के सामने ऐसी नजीरें रखे जो ये समझा सकें कि जंगली सोच के लिए सभ्यता का कोई पैमाना काम नहीं करता और दरिंदगी से बचने का कोई ड्रेसकोड नहीं होता।
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