नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी) : बीजेपी जब सत्ता के लिए संघर्ष कर रही थी तो दो विषय ऐसे थे जिसे उसने प्रमुखता से उठाया। पहला, देश में समान आचार संहिता और दूसरा राष्ट्रीय जनसंख्या नियंत्रण नीति। इन दोनों ही विषयों पर केंद्र सरकार और बीजेपी शासित राज्य सरकारों के मंत्रियों और नेताओं की तरफ से अक्सर बयान भी आते रहते हैं लेकिन दिलचस्प बात ये है उन बयानों में कोई तारतम्य नहीं होता। कभी कोई कुछ तो कोई कुछ और बोलता है। प्रश्न ये है कि क्या बीजेपी खुद इन मुद्दो को लेकर गंभीर है और वास्तव में क्या ऐसे कानूनों की जरूरत है। आज चर्चा जनसंख्या नियंत्रण कानून की।
क्या ये सिर्फ चुनावी मुद्दा है ?
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। चुनावों के दौरान तमाम बीजेपी नेताओं ने जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने के मसले को जोरशोर से उठाया। अब देखिए पिछले साल जुलाई में लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. भारती प्रवीण पवार ने इस मसले पर क्या कहा। उन्होंने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि, मोदी सरकार नेशनल फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम के जरिए ही भारत में जनसंख्या को नियंत्रित रखने का काम कर रही है जो स्वैच्छिक है और जनता को परिवार नियंत्रण के कई विकल्प देती है। मोदी सरकार ‘टू चाइल्ड पॉलिसी’ लाने पर कोई विचार नहीं कर रही और न ही किसी दूसरी नीति पर।
अभी साल भर भी नहीं बीता था कि रायपुर में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री प्रहलाद पटेल ने अभी तीन दिनों पहले 31 मई को एक नया बयान दिया। उन्होंने कहा कि, जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए एक क़ानून जल्द लाया जाएगा, चिंता न करें। जब इस तरह के मज़बूत और बड़े फैसले लिए गए हैं तो बाकी को भी (पूरा) किया जाएगा।
सरकार की तरफ से जनसंख्या नियत्रण कानून को लेकर दो तरह के एकदम उलटे बयान। सरकार अपने कहे को लेकर कितनी गंभीर है ये इन बयानों से जाहिर होता है।
क्या वास्तव में जनसंख्या नियंत्रण कानून जरूरी है ?
अब सवाल ये कि क्या वास्तव में देश में जनसंख्या नियंत्रण इस वक्त एक बड़ा मसला है जिस पर कानून की जरूरत है। विशेषज्ञों का कहना है कि कतई नहीं। दुनिया की आबादी कम हो रही है। भारत जैसे देश में जनसंख्या वृद्धि दर बहुत तेजी से कम हो रही है और सरकार को इस मामले में कोई भी कदम उठाने से पहले काफी सोच-विचार की जरूरत है।
वे बताते हैं कि, चीन की 1979 में शुरू की गई ‘एक बच्चा नीति’ दुनिया के सबसे बड़े परिवार नियोजन कार्यक्रमों में से एक थी। ये करीब 30 साल तक चली। इस दौरान चीन की फर्टिलिटी रेट 2.81 से घटकर 2000 में 1.51 हो गई। चीन को इसका बड़ा नुकसान हुआ और उसे वर्क फोर्स के लिए दूसरे देशों का मुंह ताकना पड़ा।
जनसंख्या नियंत्रण के सवाल पर देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने काफी काम किया है और उन्होंने इस विषय पर एक किताब, द पॉपुलेशन मिथ : इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया लिखी है। उनका कहना है कि, भारत की जनसंख्या को लेकर कई भ्रम हैं, जिन्हें दूर करने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि, भारत को जनसंख्या नियंत्रण पर क़ानून की ज़रूरत आज से 30 साल पहले थी। आज नहीं। जनसंख्या वृद्धि दर, प्रजनन दर, रिप्लेसमेंट रेशियो और गर्भनिरोधक के तरीकों की डिमांड सप्लाई का अंतर बताता है कि सरकार को जनसंख्या नियंत्रण पर क़ानून की ज़रूरत नहीं है।
एसवाई कुरैशी ने कहा कि, भारत में जनसंख्या वृद्धि को लेकर सबसे बड़ी भ्रांति ये है कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं और उनकी वजह से जनसंख्या ज़्यादा बढ़ रही है। लेकिन ये पूरी तरह से तथ्यों से परे है। उन्होंने इस मामले में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की पिछली पांच रिपोर्टों के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि, हिंदू और मुसलमानों में बच्चे पैदा करने का अंतर एक बच्चे से ज़्यादा कभी नहीं रहा। साल 1991-92 में ये अंतर 1.1 का था, इस बार ये घट कर 0.3 का रह गया है।
उन्होंने बताया कि, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि हर दशक में जनसंख्या बढ़ने की दर कम हो रही है। ये सभी धर्म के लोगों के बीच हो रहा है। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर कुल प्रजनन दर 2.1 से कम हो गई है जो रिप्लेसमेंट रेशियो से कम हो गई है। रिप्लेसमेंट रेशियो 2.1 का मतलब है, दो बच्चे पैदा करने से पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार चलता रहेगा। प्वाइंट वन इसलिए क्योंकि कभी-कभी कुछ बच्चों की मौत छोटी उम्र में हो जाती है। रिप्लेसमेंट रेशियो का 2 से नीचे जाना, आगे चल कर चिंता का विषय भी बन सकता है।
यूपी-बिहार के आंकड़े चिंता की वजह
हेल्थ सर्वे-5 आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड मेघालय और मणिपुर वे राज्य हैं जहां अब भी प्रजनन दर 2.1 से ज़्यादा है। इन राज्यों में इस वृद्धि दर को काबू करने और उसे राष्ट्रीय औसत के करीब लाने की जरूरत है।
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