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क्या वाकई मेडिकल शिक्षा को भाषायी ‘गिनी पिग’ बनाने की जरूरत है….?

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नई दिल्ली 15 अक्टूबर (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : कुछ दिनों पहले गृहमंत्री अमित शाह ने हिंदी के इस्तेमाल को लेकर दो बार ऐसे बयान दिए जिनसे विवाद के साथ चिंताएं भी खड़ी हो गईं और एक नई बहस ने जन्म ले लिया। गृह मंत्री ने भाषायी समिति की ताजा सिफारिशों का हवाला देते हुए कहा कि, देश में अंग्रेजी को हिंदी से रिप्लेस किया जाना चाहिए। इस समिति ने सिफ़ारिश की है कि हिंदी भाषी राज्यों के आईआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विद्यालय जैसे तकनीकी और ग़ैर-तकनीकी उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिए। देश के अन्य हिस्सों में स्थानीय भाषाओं में शिक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

इससे पहले भी अमित शाह ने हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में विकसित और स्वीकार करने की बात कही थी। इसे लेकर दक्षिण भारतीय राज्यों विशेषकर तमिलनाडु और केरल में खासा बवाल खड़ा हो गया था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इसका खुला विरोध करते हुए एक पत्र भी लिखा था।

अब हिंदी के प्रयोग को लेकर ताजा मामला मध्य प्रदेश में मेडिकल की पढ़ाई को लेकर है। मध्य प्रदेश देश का वो पहला राज्य होगा जहां हिन्दी में मेडिकल की पढ़ाई करवाई जाएगी। 16 अक्टूबर को गृह मंत्री अमित शाह मेडिकल शिक्षा पाठ्यक्रम के लिए हिंदी में तैयार किताबों का भोपाल में विमोचन करेंगे।

मध्य प्रदेश सरकार की इस पहल को लेकर विवाद कम शंकाएं ज्यादा हैं। सबसे बड़ी शंका तो यही कि मेडिकल की पढ़ाई के लिए किस हद तक हिंदी में संसाधन उपलब्ध हैं, दूसरा, क्या मेडिकल जैसी उच्च गुणवत्ता मांगने वाली पढ़ाई को शुरुवाती तौर पर इस तरह प्रयोग के लिए गिनी पिग बनाया जा सकता है। तीसरा, हिंदी में पढ़ाई के बाद मेडिकल का छात्र किस हद तक पेशेवर के रूप में सफल हो पाएगा। और चौथा और सबसे अहम सवाल, मौलिक शोध के अभाव में क्या हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई सिर्फ अनुवाद पर आधारित नहीं होगी जबकि मेडिकल जैसे क्षेत्र में मौलिक कामों की बहुत ज्यादा महत्ता और उपयोगिता है।

मध्य प्रदेश में मेडिकल की शिक्षा

मध्य प्रदेश में इस पूरे प्रोजेक्ट को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेशनल एजूकेशन प्रोग्राम पर अमल की दृष्टि से लाया गया है। इसके तहत छात्रों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में उपलब्ध कराए जाने का प्रवाधान है। नेशनल एजूकेशन प्रोग्राम 2020, पुरानी शिक्षा प्रणाली को बदल कर लाया गया है। नए पाठ्यक्रम में बच्चों को शिक्षित करने के साथ ही उनके समग्र विकास पर ध्यान देने की बात कही गई है।

मध्य प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने इस पूरे प्रोजेकट की रूपरेखा तैयार की है। उनका कहना है कि, इसका मक़सद मेडिकल की पढ़ाई को ग्रामीण क्षेत्रों और हिन्दी मीडियम से पढ़ने आने वाले छात्रों के लिए आसान बनाना है। वे मानते हैं कि, किसी भी सूरत में अंग्रेज़ी में मेडिकल की पढ़ाई का विकल्प नहीं है बल्कि इसके जरिए छात्रों को एक ऐसा प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना है, जिससे वे आसानी से विषय के बारे में समझ सकें। वे बताते हैं कि, पहले तो डॉक्टरों और शिक्षकों को इसे लेकर संदेह था लेकिन लगातार बैठकों से संशय दूर हुआ और फिर सभी इस प्रोजेक्ट के लिए जुट गए।

इस प्रोजेक्ट के तहत सबसे पहले एमबीबीएस के प्रथम वर्ष के तीन विषयों एनाटॉमी, फिजियोलॉजी और बायोकेमिस्ट्री की किताबों को हिन्दी माध्यम में तैयार किया गया है। लेकिन धीरे-धीरे इसे आगे के वर्षों के लिए भी लागू किया जाएगा।

मध्य प्रदेश सरकार इस प्रय़ोग  को देश में पहला बता रही है। उसका मानना है कि इससे दूसरे प्रदेशों में वहां की स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई को बदलने का रास्ता खुलेगा। इस पूरे प्रोजक्ट के लिए भोपाल के सरकारी गांधी मेडिकल कॉलेज में एक वॉर रूम स्थापित किया गया है जिसका नाम मंदार रखा गया। यहां पर प्रदेश के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों के 97 डॉक्टरों को काम पर लगाया गया।

हिंदी में संसाधन किस हद तक उपलब्ध

एक सवाल मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी में संसाधनों की उपलब्धता का है। इस सवाल का जवाब देते हुए विश्वास सारंग का कहना है कि, ये कोई आसान काम नहीं है लेकिन हमारा मकसद मेडिकल शिक्षा को आसान और समझने योग्य बनाने का है। हमने मेडिकल टर्मिनोलॉजी को बदलने पर जोर नहीं दिया है। बल्कि हमारा मकसद हिंदी में उन शब्दों के अर्थ को समझाने पर ज्यादा है।

मेडिकल शिक्षा में इस प्रयोग की पहल कितनी कठिन है ?  इस सवाल का जवाब मेडिकल पाठ्यक्रम तैयार करने वाली टीम के सदस्य दीपक शर्मा देते हुए कहते हैं कि, ये काम चुनौतीपूर्ण था। इसे आसान काम तो नहीं कहा जा सकता। कोशिश यही रही कि जो भी तकनीकी शब्द हैं, उनके साथ छेड़छाड़ न किया जाए और जो भी बदलाव किए जाएं वो पढ़ने वालों को आसानी से समझ आ जाएं। वे बताते हैं कि, इस काम के लिए महीनों से वे और उनके साथी लगे रहे तब जाकर जरूरी किताबें तैयार हो पाईं।

दिल्ली की डॉक्टर अनुष्का पांडे इस पहल को लेकर सशंकित हैं। उनका कहना है कि, आज दुनिया में भाषाय़ी सीमाएं टूट रही हैं और मेडिकल हो या तकनीकी हर क्षेत्र में शोध या नई खोज पर जोर है। ऐसे में हमारा जोर मेडिकल की किताबों और शिक्षा के लिए भाषायी जोर आजमाइश पर करना फायदे का सौदा नहीं है। मेडिकल की पढ़ाई सिर्फ कुछ किताबों के अध्ययन तक सीमित नहीं है बल्कि रोजाना नए शोध प्रबंधों, नई खोजों और पद्धतियों को पढ़ने, समझने और अपनाने तक विस्तारित है। हिंदी को पहले संसाधनों से समृद्ध करने की जरूरत है। हालत ये है कि, एक भी शोध प्रबंध हिंदी में उपलब्ध नहीं है। सिर्फ चंद किताबें अनुवाद कर लेने से मेडिकल की पढ़ाई हो जाएगी ये सोचना ही हास्य़ास्पद है।

डॉक्टर पांडे को इस बात पर घोर एतराज हैं कि मेडिकल जैसे जीवनदायिनी पेशे को जहां उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा की जरूरत होती है वहां ऐसे प्रयोगों को आजमाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि, यहां इलाज की पद्धति पर प्रयोग होते हैं न कि बुनियादी समझ को विकसित करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

पेशेवर सफलता पर सवाल

भारत में 10 हिंदी भाषी राज्य हैं। करीब 65 प्रतिशत जनसंख्या महज 10 राज्यों में सिमटी है। देश की हिंदी पट्टी के ये राज्य भीषण गरीबी से भी जूझ रहे हैं। यहां रोजगार, शिक्षा, इलाज और आवास जैसी बुनियादी जरूरतों को लेकर दूसरे राज्यों के मुकाबले संघर्ष कहीं ज्यादा है।  हालांकि पिछले वर्षों में इन राज्यों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में सुधार देखने के मिला है लेकिन सरकारी के मुकाबले निजी मेडिकल कॉलेज तेजी से खुले हैं। इन मेडिकल क़ॉलेजों में शिक्षा के व्यावसायीकरण पर फोकस है और छात्रों से डिग्री के बदले मोटी फीस वसूली जा रही है। शिक्षा की गुणवत्ता यहां हमेशा से सवालों के घेरे में रही है। इन कॉलेजों में मेडिकल शिक्षा के ऐसे पेशेवर तैयार किए जाते हैं जो पेशेवर लिहाज से कितने समृद्ध है ये तो पता नहीं लेकिन वे पैसे से जरूर समृद्ध होते हैं। वहां की मोटी फीस एक औसत कमाई वाले परिवार के लिए बहुत भारी होती है।

ड़ॉक्टर पांडे का कहना है कि, एम्स और दूसरे प्रतिष्ठित मेडिकल संस्थानों में पढ़ने वाले अधिकतर सरकारी स्कूलों या संस्थाओं से निकले छात्र होते हैं। उनकी प्रतिभा को लेकर कभी सवाल नहीं उठाए जा सकते। हिंदी और अंग्रेजी के बीच पेशेवर टकराहट नहीं है यहां लड़ाई अच्छे शिक्षण संस्थानों और मेडिकल शिक्षा के नाम पर उगाही में जुटे संस्थानों से निकले छात्रों की पेशेवर दक्षता के बीच ज्यादा है। हिंदी में पढ़ कर कोई क्या करेगा ये सवाल गौण है क्योंकि पांच साल की स्नातक पढ़ाई में ही पेशे को लेकर एक एप्रोच डवलप हो जाती है और वही ताउम्र हावी रहती है।

हिंदी में मेडिकल शिक्षा या अनूदित मेडिकल शिक्षा

दुनिया के तमाम देशों में मेडिकल की पढ़ाई उन देशों की अपनी भाषा में होती है। जर्मनी, फ्रांस, रूस, चीन और जापान सभी देशों में मेडिकल की पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में होती है। पेशेवर शोध से लेकर नए प्रयोग तक सभी कुछ अपनी भाषा में होते है। ऐसा नहीं है कि दुनिया की दूसरी भाषाओं में हो रहे काम से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं। सब कुछ है लेकिन खुद को और अधिक परिष्कृत करने के लिए। डॉक्टर अनुष्का पांडे का कहना है कि, हिंदी में मेडिकल क्षेत्र में कितने शोध हुए हैं, हुए भी हैं या नहीं ये भी जानने की जरूरत हैं। हमारी मेडिकल की पढ़ाई पूरी तरह से अंग्रेजी के ज्ञान और शोध पर ही टिकी रही है। अगर आपको हिंदी में पढ़ना –पढ़ाना है तो किताबें कहां से आएंगी ? कितनी मूल किताबें हिंदी में लिखी गई होंगी ? पाठ्यक्रम से लेकर किताबें तक सभी कुछ अनुवाद पर टिका होगा। उससे क्या फायदा मिलने वाला है?  सबसे पहले, हिंदी में सोच और दृष्टि विकसित करने की जरूरत है। बुनियादी ढांचा, जरूरतें, सुविधाएं और बाकी सब तो बाद की चीजें हैं।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया                 

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