नई दिल्ली 16 अगस्त ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ): प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2022 तक देश के सभी नागरिकों के लिए अपने घर की योजना का एलान किया था। इस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री ने अप्रैल 2016 में की थी और इसे बीजेपी सरकार की फ्लैगशिप स्कीमों में से एक कहा जाता है। विभिन्न चुनावों में बीजेपी ने योजना को सफल बताते हुए इसे राजनीतिक तौर पर खूब प्रचारित किया और उसका चुनावी फायदा उठाने का भरपूर प्रयास किया।।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी वर्ष अप्रैल में एक ट्वीट करते हुए बताया था कि, इस योजना के तहत तीन करोड़ से ज्यादा आवास जनता को दिए जा चुके हैं। उन्होंने ये भी कहा कि सभी बुनियादी सुविधाओँ से युक्त ये आवास महिला सशक्तिकरण के प्रतीक भी हैं।
क्या है हकीकत ?
अगर प्रधानमंत्री आवास योजना से जुड़े तथ्यों की गहराई से छानबीन की जाए तो कहानी कुछ उलट ही बयां करती है। दरअसल, तथ्य इस बात का इशारा करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ये योजना तीन बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है और शायद अब समय उसकी असफलता की कहानी लिखने का आ चुका है। योजना कुछ बुनियादी सवालों में ही उवझ कर रह गई हैं। पहला, केंद्रीय और राज्य स्तर पर अफसरी कार्यशैली, दूसरा, इन आवासों के निर्माण में घटिया सामग्री के इस्तेमाल के कारण इनकी खतरनाक स्थिति और तीसरा, इस योजना के मद में दी जाने वाली अल्प आर्थिक सहायता से उपजी बेबस स्थिति।
संसद की स्थायी समिति ने उठाए सवाल
ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर गठित संसद की स्थायी समिति की 16वीं रिपोर्ट में इस योजना से संबंधित विभिन्न पक्षों को उजागर किया गया है जिसमें विशेष जोर प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) पर दिया गया है। समिति ने स्पष्ट तौर पर इस योजना को लेकर तमाम शकाएं उठाई हैं। समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि योजना के बेहतर नतीजों के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, योजना समय़ से काफी पीछे है और इसकी सफलता के लिए राज्य सरकारों के साथ ग्राम पंचायतों, निचले स्तर के नौकरशाहों, बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं जैसे स्टेक होल्डरों के ईमानदार और प्रतिबद्ध प्रयासों की जरूरत है, जो फिलहाल नहीं दिखाई दे रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तमाम स्टेकहोल्डरों के बीच फंसी इस योजना को लेकर तमाम तरह की अफवाहें फैलाई जाती हैं और योजना का लाभ सही व्यक्ति तक पहुंच ही नहीं पाता। समिति ने आरोप लगाया कि हालात तब और खराब हो जाते हैं जब योजना के लिए निर्धारित सब्सिडी के एक बड़े हिस्से को ग्राम पंचायतें और बैंकों के निचले स्तर के कर्मचारी खा जाते हैं।
समिति की रिपोर्ट में योजना से अपेक्षित नतीजे न मिल पाने की वजहों की तरफ इशारा करते हुए कुछ सुझाव दिए गए हैं।
लाभार्थियों की सही पहचान न हो पाना
समिति का कहना है कि, सबसे बड़ी परेशानी योजना का लाभ उस व्यक्ति तक न पहुंच पाना है जिस तक उसे पहुंचना चाहिए। समिति का कहना है कि इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी अगर कोई है तो वो हैं ग्राम पंचायतें। गावों की सामाजिक संरचना में जाति, निजी दुश्मनी और राजनीतिक दांवपेंच काफी हावी रहते हैं। पंचायतें इसका सबसे बड़ा जरिया होती हैं। किसे इस योयना का लाभ मिलना चाहिए किसे नहीं इसमें पंचायतों की बड़ी भूमिका होती है और वे तमाम तरह के आग्रहों की शिकार होती है। चूंकि इस बारे में कोई शिकायती फोरम की व्यवस्था है नहीं तो पंचायतें बैंकों के साथ मिलकर घूसखोरी करती हैं और सही व्यक्ति के बदले जेब गरम करने वाले को पात्र बना देती हैं।
रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, अगर योजना का लाभ इसके सही पात्रों को नहीं मिला तो इसका कोई मकसद नहीं रह जाता। इसलिए सही पात्रों की पहचान सबसे ज्यादा जरूरी है। समिति का कहना है कि जिला और पंचायत स्तर पर लागू होने वाली केंद्रीय योजनाओं की निगरानी केंद्र को खुद करना चाहिए और योजना के पात्रों की पहचान के लिए विभिन्न एनजीओज़ और निजी संस्थाओं की मदद ली जानी चाहिए। समित ने ये भी सुझाव दिया कि अधिकृत तौर पर पहचान का जिम्मा ब्लॉक डवलपमेंट ऑफिसर को सौंपा जाना चाहिए और पहचान में गड़बड़ी की स्थिति में उसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इन मामलों में पंचायतों को ये जिम्मेदारी पूरी तरह से देना ठीक नहीं है हालांकि उनकी भागीदारी भी इस मामले में होनी चाहिए।
आपको बताते चलें कि, नवंबर 2021 तक के आंकड़ों को अनुसार, पहचान की समस्या के चलते इस योजना के तहत 2.77 करोड़ से ज्यादा लोगों की पात्रता के बावजूद मंत्रालय ने सिर्फ करीब 51 लाख आवासों की ही मंजूरी दी।
महंगाई का दबाव
अप्रैल 2016 में जब ये योजना घोषित की गई थी तब इसके तहत मैदानी इलाकों में प्रति इकाई 70,000 का कर्ज लेने की सुविधा के अलावा 1.2 लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी जाती थी। पहाड़ी इलाकों में यही सहायता 1.3 लाख रुपयों की थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि, पिछले वर्षों से जिस तरह से महंगाई और घर बनाने में लगने वाले साजों-समान की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है उसे देखते हुए तुरंत इस आर्थिक सहायता को बढ़ाए जाने की जरूरत है।
हालांकि समिति के इस सुझाव को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने खारिज कर दिया। ऐसी स्थिति में इन आवासों में घटिया सामग्री या सुविधाओं में कमी करने का विकल्प ही बचता है। प्रधानमंत्री दावा कुछ भी करें लेकिन योजना के पात्र लोगों को लेकर सरकार की क्या सोच है इससे उजागर होती है।
जमीन का न होना
संसदीय समिति की रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है कि, ग्रामीण विकास विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद योजना से जुड़े करीब 65 फीसदी लाभार्थियों को अभी तक जमीन ही उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। इससे इस योजना की गंभीरता और सफलता को लेकर चिंताजनक स्थितियां नजर आती हैं। हालांकि, मंत्रालय इसके लिए राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराता है। उसका दावा है कि उसने इस समस्या को लेकर इन्हें पहले ही आगाह कर दिया था लेकिन उनकी लापरवाही के कारण ही ऐसे हालात पैदा हुए हैं।
आपको बता दें कि, महाराष्ट्र में इस योजना के सबसे ज्यादा भूमिहीन पात्र हैं जबकि ओडिशा, तमिलनाडु, और असम का नंबर उसके बाद आता है।
संसदीय समिति का सुझाव
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकारी जवाबों पर असंतोष जाहिर किया है। उसकी सिफारिश है कि, योजना के पात्र लाभार्थियों की पहचान, उन्हें दी जाने वाली आर्थिक सहायता और भूमिहीन पात्रों को लेकर राज्य सरकारों की उदासनीनता जैसे मसलों की तत्काल समीक्षा की जरूरत है और व्यावहारिक एवं सामयिक नियमों की जरूरत है। समिति ने इस बात पर नाराजगी जताई है कि, इस बहुप्रचारित सरकारी योजना को लेकर कोई निगरानी समित नहीं है और योजना के इस हाल के लिए केंद्र और राज्य सरकारें एक दूसरे को दोषी ठहरा रही हैं।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया