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‘गुजरात मॉडल’ पर प्रश्नचिन्ह, राज्य का किसान बिहार से भी बुरी स्थिति में…!

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए लेखराज ) :  देश में तरक्की के मॉडल के रूप में गुजरात मॉडल को एक मानक के तौर पर पेश किया जाता है। विकास का चाहे जो पैमाना हो गुजरात मॉडल का जिक्र सबसे पहले आता है। लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है ? अगर बताय़ा जाए कि गुजरात का किसान बिहार के किसान से भी खराब हालत में है तो शायद यकीन करने के पहले कई बार तत्यों को जांचने की जरूरत महसूस हो, लेकिन है यही सच।

अंग्रेजी अखबार द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि गुजरात के किसानों की तुलना में बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के किसान बेहतर स्थिति में हैं। गुजरात के प्रत्येक किसान परिवार पर 56,568 रुपए का क़र्ज़ है, जबकि बिहार के एक किसान परिवार पर 23,534 रुपए का क़र्ज़ है।

रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि,  गुजरात में एक किसान परिवार की मासिक आय 12631  रुपए है जो बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के किसानों की मासिक आय की तुलना में बहुत कम है। गुजरात के 61 फीसदी से ज्यादा परिवार कृषि क्षेत्र से आते हैं।

रिपोर्ट में संसद में पेश आंकड़ों का जिक्र करते हुए बताया गया कि, गुजरात में कृषि ऋण 2019-20  के 73228.67  करोड़ रुपए से बढ़कर 2021-22 में 96,963.07 करोड़ रुपए हो गया। बताया गया है कि बीते दो वर्षों के दौरान कृषि ऋण कार्यक्रम के तहत प्राप्त ऋण भी 45 फीसदी तक बढ़े हैं। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, एक तिमाही के दौरान प्रति खाता कृषि ऋण 1.71 लाख रुपए से बढ़कर 2.48 लाख रुपए हो गया है।

रिपोर्ट बताती है कि जैसे-जैसे कर्ज का स्तर बढ़ा है, वैसे-वैसे गुजरात में कृषि मजदूरों और किसानों में आत्महत्या की दर में भी वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, महामारी के दौरान वर्ष 2020 में गुजरात में 126 खेतिहर मजदूरों और किसानों की मौत की वजह आत्महत्या थी।

अखबार ने अपनी रिपोर्ट में दक्षिण गुजरात के एक किसान रमेश पटेल से बातचीत का हवाला भी दिया है। पटेल के अनुसार, ‘खाद के दाम बढ़ गए हैं। वहीं, बीज के दाम दोगुने से भी ज्यादा हो गए हैं। इसके अलावा, किसानी से जुड़ी मशीनरी और ट्रैक्टरों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले डीजल की कीमत में वृद्धि हुई है। नतीजतन, किसानों की कुल आय में कमी आई जबकि लागत बढ़ी है। अधिकांश किसान अपने पिछले कर्ज भी चुका रहे हैं।

कृषि-विज्ञानी और गुजरात विद्यापीठ के पूर्व कुलपति राजेंद्र खिमानी के अनुसार, ‘कृषि उत्पादों की कीमतें खेती की लागत के हिसाब से नहीं बढ़ती हैं। नतीजतन, किसान कर्जदार हो जाता है। खेती की लागत की कीमतों में 60  प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। जबकि पिछले तीन सालों में फसल की कीमतों में 30 फीसदी से अधिक की वृद्धि नहीं हुई है। सीधे शब्दों में समझें, तो कृषि उत्पादन में लागत और आय के बीच एक बड़ा अंतर दिखता है, जो किसानों का कर्ज बढ़ा रहा है।

गुजरात से आने वाले कृषि विशेषज्ञ हंसमुख भाई शाह, इसे विडंबना की स्थिति मानते हैं। उनके अनुसार, पिछले दशकों में गुजरात में विकास का पूरा फोकस शहरी इलाकों पर रहा। इस दौड़ में गांव कहीं पीछे छूट गए। कृषि कार्यों की लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई और किसान इसके बारे में मुंह भी नहीं खोल सका। उसकी बात को मजबूती से रखने वाले भी नहीं रहे। उन्होंने बताया कि गुजरात में खेती और कृषि उत्पादन अधिकतर सहकारी क्षेत्र से जुड़ा हुआ है वहां बड़े किसानों की तो पूछ है लेकिन छोटा और मझोला किसान मारा जाता  है।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया  

 

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