नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए पंखुड़ी शुक्ला): प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद सरकारी कामकाज में हिंदी के इस्तेमाल का चलन काफी बढ़ गया है। विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज में हिंदी में आख्या या फुटनोट लिखने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। सिविल सेवा में भर्ती के तौरतरीकों में भी काफी बदलाव किया जा रहा है। विभिन्न मंत्रालयों में संयुक्त सचिव और निदेशक स्तर पर लैटरल इंट्री या सीधी भर्ती की परंपरा शुरू कर दी गई है। कहा जा रहा है कि इन कोशिशों से सिविल सेवा के अधिकारियों के चयन में भी भारतीय भाषाओं और हिंदी का जोर बढ़ रहा है। लेकिन क्या ऐसा सचमुच है ?
पिछले वर्ष के सिविल सेवा परिणामों पर नज़र डालिए। हिंदी भाषा से सिविल सेवा परीक्षा देने वाला कोई भी सफल उम्मीदवार शीर्ष 200 उम्मीदवारों में अपनी जगह नहीं बना पाया। 2010 तक हिंदी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा देने वाले सफल उम्मीदवारो की तादाद करीब 35 से 40 प्रतिशत तक होती थी। लेकिन 2013 आते – आते हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले सफल उम्मीदवारों की संख्या 15 फीसदी तक सीमित रह गई। और आश्चर्य तो तब है जब ये तादाद 2019 में सिर्फ 4-5 प्रतिशत के दायरे में सिमट गई।
क्या रही वजह
दिल्ली में निर्माण नाम से सिविल सेवा कोचिंग सेंटर के निदेशक के.डी. सिंह सवाल उठाते हैं कि क्या वास्तव में हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रतिभाओं का कमी हो रही है या कहीं ऐसा तो नहीं वे भाषाई आधार पर भेदभाव के शिकार हो रहे हैं। उनका कहना है कि, क्षेत्रीय भाषाओँ में परीक्षा देने वाले उम्मीदवारों के साथ परेशानी 2011 में तब शुरू हुई जब पाठ्यक्रम में सीसैट या सिविल सेवा एप्टीच्यूड टेस्ट को शामिल किया गया। ये एप्टीच्यूड टेस्ट कुछ इस तरह का था जिसमें इंजीनियरिंग और बिजनेस मैंनेजमेंट के छात्र फायदे में रहते थे। जबकि बाकी के लिए ये मुश्किल भरा होता था।
एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी और इस समय सिविल सेवा के एक कोचिंग सेंटर से संबद्ध शांतनु शार्मा एक और खास वजह की तरफ ध्यान दिलाते हैं। उनका कहना है कि, पिछले कुछ वर्षों से सिविल सेवा को लेकर पूरा फोकस उत्तर से दक्षिण भारत की तरफ शिफ्ट हो गया है। उत्तर भारत में दिल्ली को छोड़ दें तो शायद ही कोई शहर सिविल सेवाओं की तैयारी के लिए अब जाना जाता हो। एक जमाने में उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद सिविल सेवकों को तैयार करने की खान मानी जाती थी। अब वहां कुछ नहीं है। दक्षिण भारत में चेन्नई, बेंगलुरू और हैदराबाद सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए एक बड़े केंद्र के रूप में मौजूद हैं। ये छात्र आमतौर पर अंग्रेजी भाषा में ही परीक्षा देते हैं। वैसे भी अगर हिंदी को छोड़ दिया जाए तो दूसरी भारतीय भाषाओँ में परीक्षा देने वाले छात्रों की तादाद काफी कम है।
एक अन्य वजह जो बताई जा रही है वो है गैर हिंदी भाषी राज्यों में इंजीनियरिंग और प्रबंधन की पढ़ाई वाले केंद्रो का भारी तादाद में होना। सिविल सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम में हुए बदलाव का फायदा चूंकि इन दोनों वर्गों के छात्रों को सबसे ज्यादा हुआ इसीलिए उनकी सफलता का प्रतिशत भी हिंदी भाषी छात्रों के मुकाबले कहीं ज्यादा रहा।
नीति आयोग ने भी सुधार की जरूरत बताई
प्रशासनिक सुधार से जुड़ी नीति आयोग की सिफारिशों में सिविल सेवा की चयन परीक्षा में सुधार करने की जरूरत की तरफ इशारा किया गया है। इन सिफारिशों में इस सेवा को प्रभावी बनाने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं से आने वाले उम्मीदवारों को उचित महत्व देने की बात कही गई है।
फोटो सौजन्य – सोशल मीडिया