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हिंदी को लेकर दिल्ली का आग्रह, दक्षिण में हिंदी थोपने का संकेत न बन जाए !

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नई दिल्ली,17 अक्टूबर (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) :  तमिलनाडु के मुख्य़मंत्री एम के स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिख कर आगाह किया है कि देश को एक और भाषायी संघर्ष में झोंकने के लिए मजबूर करने की कोशिशो से बचा जाना चाहिए। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाले भाषायी पैनल की सिफारिशों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बाद में एक ट्वीट किया। अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा कि, ‘ मुझे डर है कि ‘एक राष्ट्र’ के नाम पर हिंदी को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के बीच सद्भाव और भाईचारे की भावना को नष्ट कर देगी और ये भारत की एकता के लिए घातक हो सकता है।‘

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का ये बयान उस समय आया है जब देश के गृहमंत्री अमित शाह ने  मेडिकल की हिंदी में पढ़ाई के लिए मध्यप्रदेश में नई शिक्षा नीति के तहत तीन पाठ्यक्रमों की हिंदी किताबों का विमोचन किया है। इससे पहले भी उन्होंने सार्वजनिक मंचों पर देश की संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी की जगह हिंदी को प्रतिष्ठित करने की बात कही थी। गृहमंत्री के इस बयान के बाद जैसी कि अपेक्षा थी तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों से इसके विरोध में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के हालिया पत्र और सोशल मीडिया पर उनके ट्वीट ने ये आशंका खड़ी कर दी है कि कहीं देश 1950 के दशक में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के हश्र की राह पर न चल पड़े। उत्तर भारत में शुरू हुए इस आंदोलन के पीछे जो राजनीति हुई उसके कारण दक्षिण भारत के राज्यों में इसने हिंदी थोपो आंदोलन की शक्ल ले ली और इसके कारण उत्तर-दक्षिण राज्यों के बीच एक खाई पैदा हो गई।

गृहमंत्री अमित शाह ने अंग्रेजी की जगह हिंदी को प्रतिष्ठित करने के लिए भाषायी पैनव की सिफारिशों का हवाला दिया। अब हम ये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर भाषायी पैनल है क्या और इसकी सिफारिशे क्या हैं और क्या वे देश के सभी राज्यों, संस्थाओं और विभागों को इंगित करते हुए की जाती हैं ?

भाषायी पैनल क्या है ?

राजभाषा संसदीय समिति का गठन 1976 में राजभाषा अधिनियम 1963 के सेक्शन 4 के तहत किया गया। अधिनियम के नियमों के तहत समिति को राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग, उसके विकास और प्रोत्साहन की दृष्टि से संस्तुतियां देने का दायित्व सौंपा दिया गया। इस समिति में संसद के दोनो सदनों के सदस्य हैं। इसकी सिफारिशों को अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। समिति की अध्यक्षता केंद्रीय गृह मंत्री करते हैं जबकि इसमें सदस्य के रूप में लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10 सांसद होते हैं। इस समय समिति में सबसे ज्यादा सदस्य बीजेपी के हैं जबकि  बीजेडी, कांग्रेस, जनता दल-यू और एलजेपी के सांसद भी इसके सदस्यों में शामिल हैं।

संसद की दूसरी समितियों से अलग राजभाषा समिति अपनी सिफारिशों को राष्ट्रपति को सौंपती है और वे चाहें तो इन सिफारिशों पर विचार के लिए उन्हें संसद के पटल रखा जा सकता है या राज्यों को विचार के लिए भेजा जा सकता है।

क्या हैं अमित शाह पैनल की सिफारिशें ?

अमित शाह पैनल ने 9 सितंबर को अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी थीं। हालांकि सिफारिशें गोपनीय होती हैं और वे अभी तक सार्वजनिक नहीं की गईं हैं लेकिन सूत्रों से जो जानकारी सामने आई है उनके अनुसार पैनल ने हिंदी के इस्तेमाल, विकास और प्रोत्साहन के लिए करीब 100 सिफारिशें की हैं। सूत्रों के अनुसार, पैनल ने सुझाव दिया है कि, हिंदी भाषी राज्यों में स्थित आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा में पढ़ाई होनी चाहिए जबकि अन्य राज्यों में स्थित ऐसे संस्थानों में पढ़ाई वहां की क्षेत्रीय भाषा में होनी चाहिए।

सूत्रों के हवाले से ये भी जानकारी दी गई है कि पैनल ने ये भी सुझाव दिया कि हिंदी को प्रशासनिक संपर्क भाषा के रूप में विकासित करने के प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन ये बाध्यकारी नहीं होना चाहिए। पैनल ने अदालतों में कामकाज की भाषा के रूप में हिंदी के चलन को बढ़ावा देने के लिए कई ठोस सुझाव दिए हैं। पैनल ने कहा है कि, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में निचली अदालतों में हिंदी में कामकाज शुरू हो चुका है। पैनल ने सुझाव दिया है कि, अब हाईकोर्ट में इसे बढ़ावा देना है और कोशिश की जानी चाहिए कि देश के दूसरे राज्यों में जहां हाईकोर्ट के कामकाज की अंग्रेजी या क्षेत्रीय भाषाओं में रिक़र्डिंग रखी जाती है उसके हिंदी अनुवाद को उपलब्ध कराया जाए क्योंकि अदालती फैसले देश के दूसरे राज्यों के लिए उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं।

पैनल ने हिंदी भाषी राज्यों में सरकारी कर्मचारियों के हिंदी के इस्तेमाल से परहेज पर कड़ा रुख अपनाते हुए सुझाव दिया है कि ऐसे अधिकारियों के सालाना परफ़र्मेंस असेसमेंट रिपोर्ट में इसका जिक्र करना चाहिए। पैनल का सुझाव है कि कई तरह के सरकारी पदों के लिए हिंदी की जानकारी को बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए और अंग्रेजी के चलन को घटाने के लिए हिंदी के सरल और सहज रूप को अपनाने पर जोर होना चाहिए।

क्या पैनल की सिफारिशें सभी राज्यों के लिए बाध्यकारी होंगी ?

ऐसा नहीं है। हिंदी के इस्तेमाल के हिसाब से राज्यों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी में वे राज्य हैं जहां सौ फीसदी हिंदी बोली और समझी जाती है। इन्हें श्रेणी ए में रखा गया है। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान और दिल्ली के अलावा केंद्र शासित अंदमान –निकोबार आते हैं। दूससी श्रेणी बी वर्ग के राज्यों की है जिनमें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब राज्य के अलावा दादरा नगर हवेली और दमन-दीव जैसे केंद्रशासित क्षेत्र आते हैं। तीसरी श्रेणी सी वर्ग के उन राज्यों की है जहां हिंदी का प्रयोग 65 फीसदी या उससे भी कम है। इन राज्यो में दक्षिण भारतीय राज्यों के अलावा, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल है।

शाह पैनल के उपाध्यक्ष बीजेडी के भर्त्रुहरि मेहताब के अनुसार बताते हैं कि, राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, ये सिफारिसे सिर्फ ए श्रेणी के राज्यों के लिए ही मान्य हैं और तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों को इससे छूट मिली हुई है। उनके विरोध के राजनीतिक कारण हो सकते हैं।

पैनल ने बताया कि, इस समय देश में रक्षा और गृह मंत्रालय में शत प्रतिशत काम हिंदी में हो रहा है जबकि शिक्षा मंत्रालय में अपेक्षित नतीजे नहीं मिले हैं। पैनल ने जानकारी दी कि, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया, बनारस हिंदू युनिवर्सिटी और अलीगढ़ मुस्लिम य़ुनिवर्सिटी में महज 25 से 35 फीसदी काम ही हिंदी में हो रहा है।

आपको बता दे कि, संविधान में शुरूवात में 15 वर्षों के लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं को राजभाषा की तरह से इस्तेमाल करने का प्रावधान किया गया था लेकिन हिंदी के खिलाफ दक्षिणी राज्यों में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के जबरदस्त विरोध के कारण 1965 के बाद भी अंग्रेजी के चलन को जारी रखने का फैसला किया गया। 1968 में संसद ने राजभाषा संबंधी प्रस्ताव को पास करके सरकारी कामकाज में हिंदी के चलन को बढ़ाने का संकल्प लिया और इसी दृष्टि से संसदीय समिति का गठन किया। समिति ने अपनी पहली सिफरिशें 1987 में सौंपी। 2011 में पी. चिदंबरम की अध्यक्षता वाली नौवीं समिति ने अपने 117 सुझावों में हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए दो भाषी कंप्यूटरों और उसके इस्तेमाल के साथ सरकारी कर्मचारियो को इसके लिए प्रशिक्षित करने का सुझाव दिया था।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया      

 

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