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योगी आदित्य नाथ क्यों बने हुए हैं अजेय ? ब्रांड मोदी की घटती साख वजह तो नहीं ?

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लखनऊ( गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र):

क्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए एक चुनौती बन गए हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ?  लखनऊ से लेकर दिल्ली और नागपुर तक योगी को लेकर खूब चर्चा हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई आला पदाधिकारी, यूपी के मंत्रियों से लेकर विधायकों तक से फीड बैक लेते रहे। खेमेबंदी हुई। योगी के पक्ष और विरोध में चिठ्ठी पत्री से लेकर दस्तावेजी सबूत तक दिल्नी पहुंचाए गए। सब कुछ हुआ जो योगी को दबाव में लेने के लिए हो सकता था लेकिन फिर भी योगी का कुछ नहीं बिगड़ा।

योगी के मुकाबले दूसरा कौन ?

आखिर, ऐसा क्या है जो योगी आदित्य नाथ, तमाम शीर्ष नेताओँ की नापसंद होने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे हुए हैं ?  राज्य में कोरोना से पैदा हुए हालात और विकास की दौड़ में फिसड्डी होने के बावजूद योगी की कुर्सी नहीं डिगी।

कारण कई हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि योगी आदित्य नाथ के विकल्प के तौर पर बीजेपी के पास कोई चेहरा है ही नहीं। राज्य या राष्ट्रीय राजनीति में यूपी का कोई नेता फिलहाल योगी आदित्य नाथ को टक्कर देने वाला नहीं दिखता। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का नाम जरूर चर्चा में आया लेकिन उन्होंने यूपी के मौजूदा हालात को देखते हुए खुद को ही इससे दूर रखने में भलाई समझी। उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की दावेदारी पहले भी थी अब भी है लेकिन पार्टी की इच्छा थी कि वे संगठन का काम संभालें। वे तैयार सिर्फ इस शर्त पर थे कि सरकार का नेतृत्व भी बदले क्योंकि मौजूदा नेतृत्व के साथ काम कर पाना मुश्किल है। बात नहीं बनी।

गुजरात से एक आईएएस अफसर ए के शर्मा कुछ महीनों पहले आनन फानन में लखनऊ पहुंचाए गए। विधान परिषद में जगह दी गई। बहुत हो हल्ला हुआ कि मोदी ने योगी का विकल्प तैयार कर दिया है। इन्हें मत्रिपरिषद में जगह दी जाएगी और वे राज्य में गृह जैसा मंत्रालय संभालेंगे। ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे लखनऊ से दिल्ली के बीच शटल बने रहे लेकिन उनका हुआ कुछ नहीं। इस बार फिर उन्हें लेकर चर्चा गरम हुई। पता चला कि उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया जाएगा और वे राज्य में कानून-व्यवस्था का जिम्मा संभालेंगे। लेकिन खबरों के अनुसार योगी आदित्य नाथ ने साफ कह दिया कि उनकी हैसियत एक राज्य मंत्री से ज्यादा की नहीं है और वे उन्हें इससे ज्यादा कुछ नहीं देने वाले। अरविंद शर्मा को नकार कर योगी आदित्य नाथ ने सीधे तौर पर दिल्ली की इच्छा को दरकिनार कर दिया।

योगी का लड़ाकू तेवर

राजनीतिक गलियारे में सब जानते हैं कि योगी आदित्य नाथ ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री  की कुर्सी भी लड़ कर ही ली थी। जब वे मुख्यमंत्री बने तो उस समय भी केशव प्रसाद मौर्या और मनोज सिन्हा उनसे रेस में आगे चल रहे थे लेकिन योगी के हठयोग ने राजनीति की बिसात पर सबको मात दे दी और वे लखनऊ की गद्दी पर काबिज हो गए। इसमें कोई दो राय नहीं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलो में योगी का राजनीतिक प्रभाव है लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं। उन्होंने उस वक्त भी जबरदस्त लोकप्रिय मोदी ब्रांड को चुनौती देकर ये संकेत जरूर दे दिया था कि लखनऊ हमेशा दिल्ली के इशारे से चले ऐसा संभव नहीं है।

राजनीति का गुणा-भाग

योगी आदित्य नाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद समय-समय पर जिस तरह के हालात प्रदेश में बने वे राज्य के नेतृत्व पर सवाल पैदा करने वाले थे। हाथरस से लेकर बिकरू तक और फिर जेलों में होने वाली घटनाओँ ने उत्तर प्रदेश के परिचय को और कलंकित किया। साथ ही पंचायत चुनावों के नतीजों ने ये साफ कर दिया है कि राज्य में कुछ महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव पार्टी के लिए अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं और नतीजे पंचायत चुनावों जैसे ही रहे तो पार्टी की हार निश्चित है। लेकिन फिर भी राज्य़ में बीजेपी के पास कोई ऐसी ठोस रणनीति नहीं है जो हिंदुत्व के इस कट्टर चेहरे की जगह ले पाती। दिल्ली और लखनऊ के बीच सब ठीक नहीं है ये सबको पता है लेकिन साथ ही पार्टी नेतृत्व इससे भी अनभिज्ञ नहीं है कि योगी आदित्य नाथ को जबरिया हटाने में पार्टी का नुकसान ही नुकसान है। वे खुले तौर पर पार्टी के लिए चुनौती बन जाएंगे। यानी राज्य में डैमेज कंट्रोल की रणनीति तैयार करती पार्टी योगी आदित्य नाथ को हटा कर और डैमेज नहीं होना चाहती।   

ब्रांड मोदी की घटती लोकप्रियता

राज्य में 2017 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। यूपी विधानसभा के चुनाव में पार्टी ने किसी चेहरे को आगे नहीं किया और मोदी की लोकप्रियता के कार्ड पर ही राज्य में प्रचंड बहुमत हासिल किया और सरकार बनाई। कमोवेश बीजेपी विधानसभाओँ के चुनाव में भी मोदी ब्रांड की लोकप्रियता को ही भुनाती रही। लेकिन पिछले कुछ महीनों में हुए विधानसभा चुनावों में जिस तरह से नरेंद्र मोदी के जमकर प्रचार करने और वोट मांगने के बाद भी चुनावी नतीजे बीजेपी के पक्ष में नहीं रहे उससे ये संदेश साफ हो गया कि नरेंद्र मोदी ब्रांड अब बीजेपी के लिए उतना बिकाऊ नहीं रह गया जितना पहले था। ऐसे में बीजेपी पार्टी और संघ ने ऐसे चेहरों की तलाश शुरू कर दी जो इसके समानांतर एक ब्रांड के रूप में विकसित हो सकें। यही वो वजह थी कि दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों में योगी आदित्य नाथ को पार्टी ने आगे रख कर उनकी कट्टर हिदुत्व के  चेहरे की छवि का फायदा उठाने की कोशिश की गई। हालांकि इसमें पार्टी को कोई ज्यादा फायदा हुआ हो ऐसा नहीं देखने को मिला। मोदी की लोकप्रियता में कमी और योगी की नाराजगी एकसाथ पार्टी को झेलनी पड़े ये उसके लिए वास्तव में मुश्किल बात होगी।

अटल बनाम कल्याण का गवाह रह चुका है यूपी  

माना जाता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता लखनऊ होकर ही जाता है। इसी कारण इस राज्य का मुख्यमंत्री भी कम ठसकदार नहीं होता। बीजेपी में हमेशा ही कट्टर और उदार चेहरे के बीच जंग चलती रहती है। अटल बिहारी बाजपेयी जब देश के प्रधानमंत्री थे उस समय भी यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से उनकी अदावत के किस्से राजनीतिक गलियारों में गूंजते रहते थे। प्रधानमंत्री का लखनऊ दौरा होता था और मुख्यमंत्री उन्हें रिसीव करने ही नहीं जाते था। अटल जी जब लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे ऐसे समय में कल्याण सिंह ने बख्शी का तालाब में एक जनसभा में खुले तौर पर अटल जी को वोट नहीं देने की अपील की थी। बख्शी का तालाब लोध बहुल इलाका है और कल्याण सिंह इसी वर्ग से आते थे।    

अब देखना ये होगा कि दिल्ली और लखनऊ के बीच ये टकराव उत्तर प्रदेश की राजनीति को कौन सा नया मोड़ देता है। चुनौती तब और गंभीर हो जाती है जब लोकसभा चुनाव भी कोरोना की छांव में ही लड़ा जाना है और प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र भी उत्तर प्रदेश में ही है।   

फोटो सौजन्य़-  सोशल मीडिया

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