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मोदी के ‘मिलेट मंत्र’ के लिए क्यों जरूरी है ‘दूरदृष्टि के साथ ठोस रणनीति’…?

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसदों को भोज पर आमंत्रित किया था। ये भोज इसलिए खास था क्योंकि इसमें सिर्फ मोटे अनाज यानी मिलेट्स से बना भोजन ही परोसा गया था। इस आयोजन का मकसद देश-दुनिया में मिलेट्स के उत्पादन और खपत को प्रोत्साहित करना था। भारत ऐसा करके सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खाद्य उत्पादन में एक बड़े बदलाव की कोशिश कर रहा है। दुनिया में सबसे ज्यादा मोटा अनाज भारत में पैदा होता है। अगर भारत की कोशिशें रंग लाईं तो न सिर्फ स्वास्थ्य और पर्यावरण की लिहाज से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी भारत को इससे भरपूर फायदा होने का अनुमान है।

भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के इस प्रस्ताव को 72 देशों का समर्थन मिला और संयुक्त राष्ट्र ने इसे अपना लिया। आने वाले महीनों में इस अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र कई कार्यक्रमों और गतिविधियों का आयोजन करेगा। भारत इस अभियान की अगुवाई कर रहा है। इसके लिए भारत को कूटनीतिक स्तर पर भी काफी मेहनत करनी पड़ी।

मोटे अनाज मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीका में उगाए जाते हैं और भारत इनका सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत के बाद उत्पादन में अफ्रीकी देश नाइजर, फिर चीन और फिर नाइजीरिया का स्थान है। अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में पूरी दुनिया में मोटे अनाजों के उत्पादन में भारत की 39 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, नाइजर की 11 प्रतिशत, चीन की नौ प्रतिशत और नाइजीरिया की सात प्रतिशत। एक अनुमान के अनुसार दुनिया के 130 से ज्यादा देशों में कम-ज्यादा ही सही लेकिन मिलेट्स का उत्पादन होता है।

क्या है मिलेट यानी मोटा अनाज ?

मिलेट एक संपूर्ण अनाज है। ये मानव जाति के सबसे पुराने खाद्यान्नों में से एक हैं जो लगभग 2.6 मिलियन वर्ष पहले पाषाण युग से मानव आहार का हिस्सा रहे है। पुरातत्वविदों द्वारा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा स्थलों पर मिलेट के बीज खोजे गए हैं। मिलेट को ‘सुपर फूड’ भी कहा जाता है। ज्वार, बाजरा, रागी, सांवा, कंगनी, चीना कोदो, कुटकी और कुट्टू जैसी आठ फसलों को मोटे अनाज की फसलें कहा जाता है।

मिलेट्स यानी मोटे अनाज के फायदे

संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (एफएओ) के मुताबिक मोटे अनाज सूखी जमीन में न्यूनतम इनपुट लगा कर भी उगाए जा सकते हैं। ये जलवायु परिवर्तन का भी प्रभावशाली रूप से सामना कर सकते है। एफएओ का कहना है कि, इस कारण से ये उन देशों के लिए एक आदर्श समाधान हैं जो आत्मनिर्भरता बढ़ाना चाहते हैं और आयातित अन्न पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहते हैं।

पोषण की दृष्टि से भी मोटे अनाजों को बेहद लाभकारी माना जाता है। एफएओ का कहना है कि ये प्राकृतिक रूप से ग्लूटेन-फ्री होते हैं और इनमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल, प्रोटीन और आयरन होता है। संस्था के मुताबिक ये विशेष रूप से उन लोगों के लिए एक बहुत अच्छा विकल्प हो सकते हैं जिन्हें सीलिएक बीमारी, ग्लूटेन इनटॉलेरेंस, रक्तचाप या मधुमेह है।

विशेषज्ञ बताते हैं कि, मिलेट में सॉल्युबल फाइबर के साथ ही कैल्शियम और आयरन की मात्रा अधिक होती है। रागी यानी मडुवे के प्रति 100 ग्राम में 364 मिलीग्राम कैल्शियम की मात्रा होती है। हड्डियों की मजबूती में रागी का कोई सानी है। ये डायबिटीज के मरीजों के लिए खास फायदेमंद है। बाजरे में खूब प्रोटीन होता है। बाजरे के प्रति 100 ग्राम में 11.6 ग्राम प्रोटीन, 67.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 8 मिलीग्राम लौह तत्व और 132 मिलीग्राम के करीब कैरोटीन होता है। कैरोटीन आंखों की सेहत के लिए अच्छा माना जाता है। बेबी फूड में ज्वार बेजोड़ है। आसानी से पचने वाले जौ यानी ओट्स में बहुत अधिक मात्रा में फाइबर होता है। कॉम्पलेक्स कार्बोहाइड्रेट वाले मोटे अनाज जौ से ब्लड कोलेस्ट्रोल काबू में रहता है।

भारत के लिए क्यों खास है मिलेट्स से जुड़ा ये अभियान

मिलेट्स के उत्पादन और खपत से जुड़ा ये अभियान भारत के लिए कई मायनों में खास है। सबसे पहला तो यही कि भारत दुनिया में मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और इन अनाजों की खपत एवं लोकप्रियता बढ़ने के साथ दुनिया के दूसरे देशों की खाद्यान्न को लेकर  भारत पर निर्भरता बढ़ेगी और भारत के लिए ये विदेशी मुद्रा कमाने का बड़ा जरिया बन सकता है।

दूसरा, भारत में किसानों की समृद्धि के रास्ते को मोटे अनाज के उत्पादन से जोड़ा जा सकता है। ऐसे अनाजों की लोकप्रियता से किसान इनके उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे, सरकार को भी इन अनाजों पर बेहतर एमएसपी घोषित करनी होगी ताकि इसे प्रोत्साहन मिल सके।

तीसरा, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सूचकांक में भारत के स्थिति बहुत ही दयनीय है। डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर, हृदय रोग और कुपोषण जैसी समस्याएं यहां विकराल रूप में मौजूद हैं। विशेषज्ञ  मानते हैं कि मोटे अनाज के चलन से भारत को ऐसी स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने में प्रभावी तरीके से मदद मिलेगी।

चौथा, भारत में अभी भी कृषि काफी कुछ मौसम पर निर्भर करती है। सिंचाई और खाद की सुविधाएं बहुत सहज और सरल नहीं है। ऐसे में मोटे अनाज का उत्पादन भारत के किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है। कम पानी, कम मेहनत और पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाते हुए मोटे अनाज का उत्पादन संभव है।

चुनौतियां भी कम नहीं    

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोटे अनाज के अभियान को एक नए कलेवर और तेवर के साथ भले शुरू किया हो लेकिन इसकी बुनियाद 2012-13 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही पड़ गई थी। उसी वर्ष पहली बार विशेष रूप से मोटे अनाजों पर धान और गेहूं से ज्यादा एमएसपी दी गई थी। लेकिन इससे भी उत्पादक किसानों को बहुत ज्यादा प्रेरित नहीं किया जा सका क्योंकि इन अनाजों की खपत काफी कम थी और उत्पादकों को इससे कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाया।

आपको बता दें  कि, भारत में धान और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाज का उत्पादन बहुत ही कम होता है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में देश में सिर्फ 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ। इसके मुकाबले 23 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और गेहूं का उत्पादन हुआ। ये आंकड़े दिखाते हैं कि मोटे अनाजों को गेहूं और चावल का विकल्प बनाना कितनी बड़ी चुनौती है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक इस समय निगम के भंडार में जहां सिर्फ 11.9 लाख टन मोटा अनाज पड़ा हुआ है वहीं 1.6 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और 1.5 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं का भंडारण है।

मोटे अनाज का महंगा होना भी एक बड़ी चुनौती हैं। महाराष्ट्र के कमॉडिटी बाजार में रागी इस समय करीब 3,800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिक रही है जबकि गेहूं करीब 2,500 रुपए है। यही नहीं खुदरा बाजार में रागी का आटा गेहूं के आटे से करीब ढाई गुना ज्यादा दाम पर मिल रहा है। दाम में इतने बड़े अंतर की वजह से विशेष रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए मोटे अनाज को चावल और गेहूं का विकल्प बनाने की चुनौती और बड़ी लगने लगती है।

मोटे अनाज के उत्पादन के साथ मांग बढ़ाने की चुनौती सबसे बड़ी है। कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि, अगर विदेश के साथ देश में मोटे अनाज की मांग नहीं पैदा होगी तो इससे संबंधित सारे अभियान फ्लॉप साबित होंगे। उनका मानना है कि भारत में किसान अभी भी अपने आसपास के बाजार और मांग को ध्यान में रख कर उपज पैदा करता है। मांग वहां पैदा करने की जरूरत है। इसके साथ ही इन अनाजों की खरीद के लिए एक प्रभावी तंत्र को विकसित करने की जरूरत है जो किसानों की उपज की बढ़िया मूल्य पर खरीद को सुनिश्चित कर सके।

कृषि मामलों के जानकार और रूरल वॉयस वेबसाइट के संपादक हरवीर सिंह ने एक वेबसाइट से बातचीत में कहा कि, सरकार के इस अभियान के पीछे कोई केंद्रित कोशिश नहीं है। सरकार को कोई लक्ष्य हासिल करना होता है तो वो उसके लिए एक मिशन की शुरुआत करती है। मिशन का मतलब होता है ठोस लक्ष्य, उन्हें हासिल करने की समय सीमा और बजटीय आवंटन। लेकिन मोटे अनाज को लेकर आज तक ऐसे किसी भी मिशन की घोषणा नहीं की गई है और इसी से सरकार की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

तस्वीर का दूसरा पहलू

भारत इस वर्ष जी-20 देशों के सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मिलेट्स की ब्रांडिंग के लिए इसे एक अच्छे अवसर के रूप में देख रहे हैं। उन्होंने इस कार्य के लिए सहकारिता मंत्रालय और सहकारी संगठनों को विशेष रूप से कोशिश करने का निर्देश दिया है। गृह एवं सहकार मंत्री अमित शाह के व्यक्तिगत निर्देशन में विभिन्न सहकारी संगठनों और स्वयं सहायता समूहों को इस बाबत प्रोत्साहित करने का विशेष अभियान चलाया जा रहा है। नेफेड और एफसीआई जैसी सरकारी खरीद संस्थाओं को भी मोटे अनाज की खरीद की दृष्टि से कदम उठाने को कहा गया है।

फोटो सौजन्य- सोशस मीडिया  

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