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क्या राहुल गांधी एक पॉलिटिकल स्केपिस्ट हैं ? जानिए, क्या हैं दलीलें

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र): : राहुल गांधी को क्या पॉलिटिकल स्केपिस्ट कहा जा सकता है ? 28 दिसंबर को कांग्रेस के स्थापना दिवस समारोह में राहुल गांधी की अनुपस्थिति ने उनके विरोधियों को उन पर तोहमत लगाने का मौका फिर दे दिया। राहुल गांघी मिलान इटली गए हुए हैं। कहा जा रहा है कि राहुल अपनी बीमार नानी से मिलने इटली गए हैं। बात सही ही होगी, लेकिन चुपचाप देश से बाहर जाने की खबरों ने बीजेपी को राहुल पर हमले का मौका दे दिया। राहुल नानी को देखने की जानकारी देकर भी इटली जा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

अहम मौकों से गायब रहे राहुल

राहुल गांधी तमाम ऐसे मौके रहे जो देश की राजनीति में काफी उथल-पुथल भरे रहे और ऐसे मौकों पर राहुल गांधी बजाए जनता और पार्टी के बीच होने के वे सीन से ही गायब रहे। 2016 में पांच राज्यों  में विधानसभा चुनाव से पहले का मौका हो या फिर 2018 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के बाद का समय राहुल की मौजूदगी से कांग्रेस की रणनीति को धार मिलती लेकिन राहुल गांधी देश में मौजूद नहीं थे। इसी तरह जब 2019 में देश में नागरिकता संशोधन कानून पर बवाल मचा था राहुल गांधी देश में मौजूद नहीं थे। वे संसद के बजट सत्र में भी अनुपस्थित रहे। राहुल की ऐसे अहम मौकों पर नामौजूदगी पार्टी के साथ-साथ आम लोगों में राहुल के नेजृत्व को लेकर संशय पैदा करती है।

राहुल फ्रंट से लीड नहीं करते

वैसे किसी की भी विदेश यात्रा उसका निजी मसला है और उसके राजनीतिक निहितार्थ निकालना उचित नहीं है लेकिन नेतृत्व से यही उम्मीद की जाती है कि विषम स्थितियों में उसकी मौजूदगी बनी रहनी चाहिए। नेतृत्व सिर्फ नाम का नहीं बल्कि फ्रंट से लीड करने वाला होना चाहिए। राहुल शायद इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं।

राजनीतिक गंभीरता पर सवाल

कांग्रेस पार्टी की राजनीति को भीतर से समझने वाले और राजनीतिक टिप्पणीकार सुनील मैथ्यू का कहना है कि, राहुल के इस तरह अहम मौकों से गायब रहने का सीधा संदेश राजनीति में राहुल की गंभीरता पर सवाल उठाता है और उन्हें एक पॉलिटिकल स्केपिस्ट के रूप में पेश करता है। वे कहते हैं कि, पार्टी की अपेक्षा होती है कि उसका नेता ना सिर्फ अहम मौकों पर दिशा निर्देश देने के लिए मौजूद हो बल्कि वो खुद उस वक्त पार्टी को लीड करता भी दिखाई दे जब उसकी जरूरत हो। राहुल इस मामले में कच्चे खिलाड़ी हैं।

मैथ्यू का कहना है कि, राहुल की ऐसी हरकतों से पार्टी ने भी उन्हें उतनी गंभीरता से लेना बंद कर दिया है जिसके वे हकदार होते। कांग्रेस के तमाम नेताओं के विरोधी सुर और नेतृत्व पर प्रश्नचिंन्ह लगाते हुए पत्र लिखने की घटना भी इसी का परिचायक है।

आरोप-प्रत्यारोपों से ऊपर

दूसरी बड़ी बात जो विशेषज्ञ बताते हैं कि राहुल आरोप-प्रत्यारोपों से ऊपर उठ चुके जान पड़ते हैं। जिस तरह से सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर बीजेपी समर्थकों की तरफ से उनका मजाक उड़ाया जाता है उससे वे अगर प्रभावित होने लगते तो शायद उनके लिए एक दिन भी राजनीति करना मुश्किल हो जाता। इसीलिए राहुल अवसरों की संजीदगी को उतना महत्व नहीं देते और खुद को एक परिपक्व राजनेता के रूप में पेश करने में अक्षम साबित होते हैं।

अहमियत टटोलने की कोशिश

मैथ्यू एक और तथ्य की तरफ इशारा करते हैं। उनका कहना है कि, कांग्रेस इस समय़ एक ऐसे दौर से गुजर रही है जब पार्टी के शीर्ष पर सवाल उठ रहे हैं। राहुल ये संदेश भी देना चाहते हैं कि पार्टी उन्हें कमान देने में अगर हिचक रही है तो ऐसे मौकों पर पार्टी के दूसरे नेताओं की नेतृत्व क्षमता सामने आनी चाहिए। राहुल कहीं ना कहीं अपनी अनुपस्थितित से अपनी अहमियत को टटोलना भी चाहते हैं। मैथ्यू कहते हैं कि दरअसल राहुल की अनुपस्थिति राहुल के कद को नापने का जरिया भी हो सकती है।       

हर साल राहुल की 65 विदेश यात्राएं

गृह मंत्रालय ने राहुल गांधी के विदेश दौरों पर एक रिपोर्ट लोकसभा में पेश की थी। रिपोर्ट के अनुसार राहुल गांधी ने साल 2015 से 2019 के बीच 247 विदेश यात्राएं कीं। हर साल औसतन 65 और हर महीने 5 से कुछ ज्यादा। इनमें वे विदेश यात्राएं शामिल नहीं हैं जो राहुल गांधी ने एसपीजी को बताए बिना की हैं। इसलिए माना जा सकता है कि ये संख्या और ज्यादा हो सकती है।

बीजेपी खुद को देखे

कांग्रेस नेता वेणुगोपाल कहते हैं कि, राहुल गांधी की विदेश यात्राओं को लेकर इतना हबायतौबा क्यों ? ये उनका निजी मामला है। अगर वे अपनी बीमार नानी को देखने इटली गए हैं तो इसमें गलत क्या है ?  पार्टी का उनमें पूरा भरोसा है और वे अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझते हैं। बीजपी वाले हमें जिम्मेदारी ना सिखाएं, वे कितने जिम्मेदार हैं ये सारा देश देख रहा है।

फोटो सौजन्य़- सोशल मीडिय़ा     

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