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19वीं सदी के कानूनों से चल रहे हैं 21वीं सदी के जेल ! बदलाव है वक्त की मांग

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गणतंत्र भारत एक प्रयोगधर्मी पोर्टल है। समाज के विभिन्न वर्गों के लब्ध-प्रतिष्ठित अनुभवी नायकों का लाभ हमारे पाठकों को मिल सके, इसके लिए लगातार प्रयास जारी रहता है। इसी क्रम में इस मंच पर सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आर.के चतुर्वेदी से जेल एवं पुलिस सुधार या कानून- व्यवस्था संबंधी विषयों के दूसरे आयामों को समझने का प्रयास किया जा रहा है। इस क्रम के दूसरे आलेख में जेलों की मौजूदा हालत के पीछे की वजहों को परखने की कोशिश की गई है।

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आर.के. चतुर्वेदी,) : पिछली पोस्ट में मैंने जेलकर्मियों की दशा पर लिखते हुए वहां मौजूद स्थितियों पर टिप्पणी की थी। ,पर यहीं अन्त नहीं है। यहाँ सबसे पहले ये जानना ज़रूरी है कि जेलों की इस स्थिति के लिए आख़िर ज़िम्मेदार कौन है ? आख़िर कौन से कारण, कौन सी परिस्थितियां हैं जिन्होंने आपराधिक न्याय व्यवस्था के इस अत्यन्त शक्तिशाली अंग को निरीह व उपहास का पात्र बना दिया है।

1894 का कानून

सबसे पहले बात उठती है उस व्यवस्था की, उन नियमावलियों की, उस क़ानून की जिन पर जेल का सम्पूर्ण प्रशासन चलता हैं। बात हो ररही है प्रिजन्स ऐक्ट की। उस पर आधारित जेल मैनुअल की जो जेलों के संचालन को दिशा देते हैं। दूसरे शब्दों मे कहें तो ये जेलों के गीता, बाइबिल ,क़ुरान, पुराण सब कुछ हैं। उत्तर प्रदेश की जेलें यू पी जेल मैनुअल  व प्रिजन्स ऐक्ट 1894 से संचालित होती हैं यानी अंग्रेजों के बनाए क़ानूनों से। ज़ाहिर सी बात है कि अंग्रेज़ों के ज़माने में जेलों को दण्डित करने के लिए बनाया  गया था। ये यातनागृह होती थीं और उनका सुधार गृह के कॉनसेंप्ट से दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही नही था। आज जेलो को सुधार गृह कहा जा रहा है। जेलों का नाम भी बदल कर बन्दी सु्धारगृह व विभाग का नाम कारागार प्रशासन एवं सुधार विभाग कर दिया गया है। पर क्या, मूलभूत व्यवस्था या मानसिकता में कोई बदलाव हुआ है। उत्तर नकारात्मक ही होगा। संरचना और सुविधाओं में कुछ बदलाव भले हो गए हों पर मानसिकता आज भी ब्रिटिश क़ालीन ही है। हम उन्नीसवीं सदी में बने क़ानूनों से इक्कीसवीं सदी की व्यवस्था की उम्मीद कर ही क्यों रहे हैं?  क्या नाम बदल देने से सोच बदल जाएगी ? बिल्कुल नहीं बदलेगी। अगर सुधार करना है तो शीर्ष से बदलाव लाना होगा। नया मैनुअल लागू करिए, उसी तरह का प्रशिक्षण दीजिए, सोच बदलिए तब उम्मीद कीजिए।

नतीजे देने वाली और भयमुक्त व्यवस्था का अभाव दूसरा बिन्दु है विभागीय व अन्य प्रशासनिक पर्यवेक्षण की क्वालिटी का। समुचित सुरक्षा व संरक्षण के अभाव में विभागीय वरिष्ठ अधिकारियों का पर्यवेक्षण व नियंत्रण  असरहीन, औपचारिक व बस नौकरी चलती रहे वाला रह गया है। ऐसा नही है कि अधिकारी कमजोर होते हैं। हम लोगों ने अपनी आंखों से चार्ल्स शोभराज को तसले में खाना खाते व ज़मीन पर कंबल पर सोते देखा है। बड़े बड़े सूरमाओं को जोड़े में बैठे देखा है। आतंकवादियों की कनाडा से जारी हिटलिस्ट में नाम आने पर भी निश्चिन्त भाव से चुटकी ली है। ये सिर्फ़ इसलिए क़ि हमें अपने वरिष्ठों के अलावा शासन-व्यवस्था पर इतना भरोसा था कि कोई भय ही नहीं लगता था। आज इसका पूरा अभाव है। ऊपर के लोगों पर भरोसा नहीं रह गया है सो नौकरी हो रही है काम नहीं। अगर परिणाम चाहिए तो वो व्यवस्था पैदा करनी होगी जिसमें भयमुक्त रह कर काम हो सके। प्रशासन के अन्य अंग ज़िला प्रशासन ,जुडिशियरी  भी इसी भाव में रहते हैं। आकस्मिक निरीक्षण पूर्व सूचना पर भाईवन्दी से होते हैं। जो दो-चार चाक़ू कट्टे की बरामदगी तक ही सीमित रह जाता है। इन्हें भी अपनी ज़िम्मेदारी समझनी व सुनिश्चित करनी होगी तभी कुछ परिणामपरक होना संभव है। अगर जेलो पर छापे के नाम पर होने वाली विज़िट के बजाय सही तौर पर छापे डाले जाएं, पहले से इन्टेलिजेंस डेवलप कर बैरक बन्द होने से खुलने के बीच के समय पर डाले जाएं तो कोई वजह नहीं कि हर तरह की गतिविधियां न नियंत्रित हो जाएं। जेलों के अस्पताल भी बीमारों के इलाज से ज़्यादा प्रभावशाली एवं सक्षम लोगों की आरामगाह के रूप में जाने व समझे जाते हैं और उन पर नियंत्रण रखना कठिन रहता है। वहाँ नियुक्त डाक्टर असली मरीज़ों व प्रशासन से ज़्यादा प्रभावशाली बन्दियों के शुभचिन्तक होते हैं। इस अव्यवस्था  के पीछे आज की तारीख़ में एक और महत्वपूर्ण तथ्य आज की पुलिसिंग का स्वरूप भी है। इस पर चर्चा आगे की पोस्ट में…

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