नई दिल्ली, 06 अक्टूबर ( गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : देश के पहाड़ी राज्यों को पलायन और बर्बाद होती खेती बड़ा जख्म दे रही है, खासकर उत्तराखंड और हिमाचल में। पहाड़ी राज्यों में आज भी करीब 98 प्रतिशत खेती बारिश पर निर्भर करती है, लेकिन अगर बारिश हो भी गई और कुछ इलाकों में पानी का इंतजाम कर भी लिया गया तो बंदर, सूअर, सेही और आवारा जानवर खेती को चट कर जाते हैं। हालत ये हो गई है कि अब पहाड़ की कई परंपरागत फसलों के बीज तक मिलना मुश्किल हो गया है। इसके कारण लोग और खासकर युवा पीढ़ी, जो खेती का काम कर भी रही थी, शहरों की ओर तेजी से पलायन कर रही है। हिमाचल और खासकर उत्तराखंड में ये समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। इसके कारण यहां के ज्यादातर गांवों में आबादी के नाम पर बुजुर्ग ही रह गए हैं और वे खेती का काम नहीं कर सकते।
डॉ. विक्रम शर्मा इंडियन कॉफी बोर्ड के डायरेक्टर रहे हैं और एक अनुभवी कृषि विशेषज्ञ भी हैं। पहाड़ से पलायन रोकने और पहाड़ की खेती को बचाने के लिए वे काफी समय से काम कर रहे हैं। मूल रूप से हिमाचल के बिलासपुर के रहने वाले डॉ.शर्मा ने करीब पांच साल पहले हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति इलाके में देश में पहली बार हींग की खेती की शुरुआत की। इसकी खेती की शुरुआत करने का कारण ये था कि हींग के पौधे में तेज गंध होती है, इस कारण बंदर या दूसरे जानवर इसे नुकसान नहीं पहुंचाते। इस वजह से इसकी खास देखभाल की जरूरत नहीं होती और ये किसान को मालामाल कर सकती है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में शुद्ध हींग की कीमत करीब 35 हजार रुपए किलो है। भारत दुनिया का ऐसा देश है जहां हींग की सबसे ज्यादा मांग है और इसका एक ग्राम उत्पादन भी अपने देश में नहीं होता। इसके कारण भारत को हर साल 10 से 12 हज़ार करोड़ रुपए मूल्य तक की हींग आयात करनी पड़ती है। हींग का देश के हर घर की किचन में तो इस्तेमाल होता ही है, कई तरह की देसी दवाएं बनाने के भी ये काम आती है। डॉ. शर्मा ने अपने निजी प्रयासों से हींग के बीज ईरान से मंगवाए थे और वो इसकी पौध किसानों को मुफ्त में देते हैं। उनका इरादा हींग की खेती का विस्तार देश के तमाम पहाड़ी राज्यों में करने का है। उन्होंने हाल में ही लेह में डीआरडीओ की मदद से हींग की खेती की शुरुआत करवाई है।
हींग का पौधा शून्य से 35 डि.से. का तापमान सहन कर सकता है। इस लिहाज से देश के पहाड़ी राज्यों के कई इलाके हींग की खेती के लिए अनुकूल हैं। इन राज्यों में किसान अब भी परंपरागत खेती कर रहे हैं और इसे जंगली और आवारा पशु भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। अगर ये किसान अपने इलाके की जलवायु के मुताबिक, अपने खेतों की मेड़ों पर हींग के कुछ पेड़ लगा दें तो इन्हें हर साल बहुत अच्छी कमाई हो सकती है और वो भी बिना किसी अतिरिक्त मेहनत या देखभाल के।
पहाड़ के किसानों की दशा सुधारने के लिए डॉ. शर्मा ने हिमाचल के ही कांगड़ा में कॉफी की खेती शुरू करवाई। पहले माना जाता था कि भारत में कॉफी दक्षिण के राज्यों में ही पैदा हो सकती है। डॉ. शर्मा ने इस धारणा को तोड़ा। उन्होंने अपनी स्टडी में पाया कि कॉफी हिमालयी क्षेत्र की जलवायु में भी काफी अच्छी तरह पैदा हो सकती है। उनके प्रयासों से चाय के लिए प्रसिद्ध कांगड़ा को अब इसकी कॉफी के लिए भी पहचान मिल रही है। ये कॉफी स्वाद में बेहतरीन पाई गई है। डॉ. शर्मा राज्य के अन्य इलाके के किसानों को भी कॉफी उगाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उन्होंने इसी साल राज्य के किसानों को कॉफी के दो लाख पौधे फ्री में दिए।
डॉ. शर्मा के मुताबिक, वे पहाड़ी इलाकों में तेजपात, चक्रफूल, पिस्ता, दालचीनी, एवोकैडो, कीवी आदि की खेती के लिए भी किसानों को प्रेरित कर रहे हैं, ताकि उनकी आय बढ़े और पहाड़ की नई पीढ़ी पलायन के लिए मजबूर न हो। उनका कहना है कि अगर पहाड़ों से पलायन नहीं रोका गया तो सीमाई राज्यों में देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। डॉ. शर्मा किसानों को खेती के गुर सिखाने और उन्हें पौधे आदि मुहैया कराने के लिए कोई पैसा नहीं लेते। वे इसके लिए अपने निजी स्रोतों और मित्रों के सहयोग से पैसे का इंतजाम करते हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ की दिक्कतों को देखते हुए यहां के किसान परंपरागत खेती की जगह ऐसी फसलों की खेती करें, जिन्हें जानवर नुकसान न पहुंचाएं और इनसे पैसा भी अच्छा मिले। इस मकसद को हासिल करने के लिए वे किसानों को लगातार जागरूक करते रहते हैं। उनकी मुहिम अब रंग भी लाने लगी है।
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