माइकेल गलांट ( स्पैन हिंदी पत्रिका से साभार) : आज, ऐसी भारतीय महिलाओं की तादात लगातार बढ़ती जा रही है जो डॉक्टरी, नरसिंग, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, रिसर्चर या उससे भी आगे कुछ करने के लिए अमेरिका में पढ़ाई करने जाती हैं। लेकिन, इस तरह की विश्व स्तरीय मेडिकल शिक्षा के अवसर हमेशा से उपलब्ध नहीं थे। आनंदीबाई जोशी और गुरुबाई कर्माकर जैसी अग्रणी डॉक्टरों ने एक सदी से भी पहले मार्ग प्रशस्त करते हुए, तमाम बाधाओं से पार, आज की भारतीय महिला के अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल शिक्षा के सपने को हकीकत में बदलने का काम किया।
आनंदी बाई जोशी का जन्म 1865 में मुंबई के पास हुआ था। 18 साल की उम्र में उन्होंने अमेरिका में मेडिसिन की पढ़ाई करने का इरादा जाहिर किया। उनका मानना था कि भारत में महिला डॉक्टरों की जरूरत बढ़ रही है और वे खुद एक डॉक्टर के रूप में योग्यता हासिल करना चाहती थीं। जोशी के लिए अपना लक्ष्य हासिल करना कठिन था और उन्हें इस रास्ते में तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसा कि उस समय बहुत आम था जोशी की 9 साल जैसी कम उम्र में ही शादी हो गई। हालांकि उनके पति ने शिक्षा को लेकर उनके सपनों का समर्थन किया। अमेरिका में पढ़ाई के शुरुवाती अनुरोध को प्रेसबाइटेरियन चर्च ने ठुकरा दिया क्योंकि जोशी ने इसाई धर्म में धर्मांतरण नहीं किया था। जोशी के अपने समुदाय ने भी उनसे कम झगड़ा नहीं किया क्योंकि उसे डर था कि अमेरिका में पढ़ाई के दौरान वे अपनी परंपराओं को नहीं निभा पाएंगी। इन शंकाओं के बावजूद, जोशी अपने दोस्तों और परिचितों की मदद से पैसों का बंदोबस्त कर पाईं। उन्होंने अपने पिता से गिफ्ट के रूप में मिले गहनों को बेच कर अपनी यात्रा के पैसे जुटाए और 1883 में वे कोलकाता से न्यूयॉर्क के लिए समुद्री जहाज से निकल पड़ीं। उन्होंने पेनसिलवेनिया के वुमेन्स मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और वहां से वे 1886 में ग्रेजुएट हुईं। वे अमेरिकी मेडिकल डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
बदकिस्मती से, जोशी पूरी तरह से अपने कौशल का लाभ भारतीय महिलाओं को देकर अपना सपना पूरा कर पातीं उससे पहले ही उन्हें टीबी हो गई और अपनी जिंदगी के 20 के दशक की शुरुवात में ही उनका निधन हो गया। लेकिन जल्दी ही दूसरी महिलाओं ने जोशी के नक्शेकदम पर चलना शुरू कर दिया।
गुरुबाई करमाकर
जोशी के ग्रेजुएशन के ठीक 6 साल बाद, दूसरी भारतीय महिला, गुरुबाई कर्माकर ने पेनसिलवेनिया के उसी वुमेन्स मेडिकल कॉलेज से मेडिकल में डिग्री हासिल की। कर्माकर एक इसाई मिशनरी थीं, उन्होंने मेडिसिन की पढ़ाई की जबकि उनके पति ने पास के एक धर्म स्थल से धर्मशास्त्र की पढ़ाई की। कर्माकर 1893 में भारत लौटीं और उन्होंने मुंबई में अमेरिकी-मराठी मिशन में 30 साल से ज्यादा काम किया। अपने पूरे करियर के दौरान उन्होंने सबसे खतरनाक बीमारियों से पीडि़त मरीजों का इलाज किया जिसमें कोढ़ के मरीज और अकालपीडि़त बच्चों का इलाज शामिल था।
हालांकि, जोशी और कर्माकर के रास्ते कई मायनों में अलग थे लेकिन उनका मकसद साझा था – मंजिलों के नए मुकाम तैयार करना, और ज्यादा पढऩे -सीखने की जिज्ञासा और सबसे ज्यादा साथी भारतीय महिलाओं और जरूरतमंदों की मदद के लिए समर्पण का भाव। उनकी मिसाल आज भी प्रेरणा देती है, और अमेरिका के शीर्ष मेडिकल संस्थानों की ग्रेजुएट कक्षाओं में भारतीय महिलाओं की गिनती बहुत गर्व के साथ की जाती है। ऐसे सभी डॉक्टर, जोशी और कर्माकर जैसी अग्रदूतों की आभारी हैं जिनके संघर्ष ने उनके जीवन के मार्ग को प्रशस्त करने में सहायता की।
(यह आलेख अमेरिकी पत्रिका स्पैन के हिंदी अंक से साभार लिया गया है। आलेख के लेखक माइकेल गलांट, न्यूयॉर्क सिटी में रहते हैं और एक लेखक, संगीतकार और उद्यमी हैं।)