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ब्रांड मोदी को प्रतिष्ठित करने की एक और कवायद…. या कुछ और ?

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए सुधा रामचंद्रन ): नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का बहुप्रतीक्षित विस्तार या कहें कि कायाकल्प करने का काम पूरा कर लिया। पिछली मंत्रिपरिषद के 12 चेहरों को बदल दिया गया है। नए 41 चेहरों में से कुछ को प्रमोशन दिया गया है तो बहुत से नए लोगों को मंत्री बनाया गया है। जिन लोगों को मंत्रिपरिषद से हटाया गया उनमें रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर और सदानंद गौड़ा जैसे कैबिनेट मिनिस्टर और कई राज्य मंत्री शामिल हैं।

मंत्रिपरिषद में शामिल होने वाले मंत्रियों में से कई नाम तो पहले से तय माने जा रहे थे लेकिन कई नाम चौंकाने वाले थे। कई आईएएस अफसर, वकील और प्रोफेशनल मंत्रिपरिषद में जगह बनाने में कामयाब रहे हैं। प्रधानमंत्री चौकाने वाले कई फैसले पहले भी लेते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने कुछ ऐसा ही किया। ओडिशा से आने वाले एक अफसर-सांसद को उन्होंने तीन- तीन मंत्रालयों का जिम्मा सौंप दिया गया। रेल, संचार और सूचना तकनीक। पहली बार मंत्री बने हैं। 2014 में यही काम गौतम बुध नगर के सांसद डॉ. महेश शर्मा के साथ हुआ था। लेकिन वे बुरी तरह से असफल साबित हुए और उन्हें दूसरी बार मंत्रिपरिषद में जगह तक नहीं दी गई। हो सकता है इसके पीछे दूसरी वजहें भी रही हों।

उखाड़-पछाड़ की जरूरत क्यों ?

सवाल उठता है आखिर नरेंद्र मोदी को इस उखाड़-पछाड़ की जरूरत क्यों थी ?  क्या सचमुच मंत्रियो के कामकाज को ही आधार बनाया गया है ?  कोरोना संकट और देश की बदहाल हालत के बीच क्या सरकार इस हद तक फेल हो चुकी थी कि उसे फौरी तौर पर बड़ी ओवरहॉलिंग की जरूरत थी ? या वास्तव में कुछ नहीं बस ब्रैंड मोदी की धूमिल होती छवि को चमकाने की कोशिश या कुछ राज्यों में जहां चुनाव आ रहे हैं उन्हें ये ल़ॉलीपॉप पकड़ाने का उद्यम भर था।

परफॉरमेंस कितना बड़ा कारण ?

देश पिछले डेढ़ साल से कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है। इसके चलते आर्थिक बदहाली, बेरोजगारी और महंगाई का जो हाल है वो आज तक इस देश ने पहले कभी भी नहीं देखा। आर्थिक मोर्चे पर तो हालात पहले से ही बहुत खऱाब थे। कोरोना ने तो एक तरह से सरकार को एक कवच दे दिया और इसकी आड़ में काफी कुछ छिप गया। अगर कामकाज को आधार बनाया गया होता तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की कुस्री सबसे पहले जानी चाहिए थी। सबसे बुरा हाल तो अर्थव्यवस्था का ही है। विदेश मंत्री एस जयशंकर का कामकाज किसी भी दृष्टि से औसत भी नहीं आंका जा सकता। विदेश नीति पर सरकार पूरी तरह से असफल है। महाशक्तियों की तो चर्चा ही छोड़िए, आसपास के देश भी सब भारत के खिलाफ नजर आते हैं। रेल मंत्री पीयूष गोयल, ने  प्रवासियों के पलायन के दौर में क्या काम था सबने देखा है। हजारों किलोमीटर पैदल चल कर प्रवासी अपने घऱ तक पहुंचने को मजबूर हुए। कामकाज तो उनका भी गड़बड़ ही है, उनका मंत्रालय बदल कर क्या संदेश देने की कोशिश की गई ?

डॉ. हर्षवर्धन को हटा कर नरेंद्र मोदी क्या संदेश देना चाह रहे हैं कि कोरोना का सारा कुप्रबंधन उन्हीं के कारण था ? ऐसा कहना गलत होगा। कोरोना हो या देश के सारे महत्वपूर्ण फैसले सभी पीएमओ यानी नरेंद्र मोदी की सीधी निगरानी में होते हैं। तो दोषी कैसे हर्षवर्धन ही अकेले होंगे। इसी तरह से दूसरे मंत्रियों का हवाला दिया जा सकता है।

कहा जा रहा है या प्रचारित किया जा रहा है प्रधानमंत्री रविशंकर प्रसाद से मोदी इसलिए खुश नहीं थे कि उन्होंने ट्विटर के साथ विवाद को ठीक से हैंडल नहीं किया। प्रकाश जावड़ेकर से नाखुशी का कारण सरकार की बातें जनता तक ठीक से नहीं पहुंच पाना बताया गया। संतोष गंगवार इसलिए गए कि प्रवासी मामलों से श्रम मंत्रालय ढंग से नहीं निपट पाया।

क्या ये दलीलें गले से उतरने वाली हैं। दरअसल देश इस समय जिन स्थितियों से गुजर रहा है उसे देखते हुए सबसे जरूरी है कि जनता के बीच ये संदेश जाए कि कुछ हो रहा है, वो मायूस न हो। और नरेंद्र मोदी इस कदम से ऐसा कुछ संदेश दे पाने में कामयाब भी लगते हैं। लेकिन इस कवायद का एक मायने ये भी है कि कोरोना और उससे उपजे हालात से सरकार निपटने में उनकी नाकाम रही और इस बड़े फेरबदल की जरूरत फौरी तौर पर आ पड़ी।

मोदी, सरकार से ऊपर और अलग

दूसरा, इस फेरबदल से नरेंद्र मोदी ने सरकार से ऊपर और अलग अपनी छवि को स्थापित करने का प्रयास किया है। जाहिर किया गया कि मोदी काम न करने वालों के लिए एक निष्ठुर बॉस हैं और कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो उसे निपटाने में वे हिचकचे नहीं। लेकिन इस सवाल का क्या जवाब है कि जब बॉस ही सारे काम तय करता है और मंत्री तो दिखाने को है। ऐसे में किसके कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए। नरेंद्र मोदी ने खुद की छवि को बेदाग रखने के लिए कइयों को नकारा साबित कर दिया। ये सारी कवायद नरेंद्र मोदी ब्रांड को चमकाने की है।

क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का लॉलीपॉप

कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब उनमें शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के हर अंचल से मंत्रियों को शामिल करके ये संदेश पहुंचाया गया कि उनका प्रतिनिधित्व भी मंत्रिमंडल में है। जातीय गुणाभाग सब किया गया। अकेले उत्तर प्रदेश से 17 मंत्री हैं इस मंत्रिमंडल में। उत्तराखंड से निशंक हटे तो अजय भट्ट आ गए। दिल्ली से हर्षवर्धन हटे को मीनाक्षी लेखी को लाया गया। यानी एक मैसेज प्रतिनिधित्व का भी देने की कोशिश की गई।

राजनीतिक चिंतक प्रो. बद्री नारायण की राय में मंत्रिपरिषद को लेकर की गई इस कवायद की तीन मायने हैं- पहला, इसके जरिए संदेश दिया गया कि तमाम विफलताओं के बीच भी सरकार सक्रिय है और मोर्चे पर डटी है। दूसरा, मुसीबत की इस घड़ी में जनता को ये महसूस कराना कि सरकार उसके साथ खड़ी है। और तीसरा, प्रतिनिधित्व, इस कवायद का सीधा सा मैसेज ये भी है कि नरेंद्र मोदी सरकार हर क्षेत्र और वर्ग को अपनी सरकार का हिस्सा बनाना चाहती हैं और उसी हिसाब से चीजों को तय किया गया।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया        

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