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पीएम की महत्वाकांक्षी योजना : क्यों अपेक्षित नतीजों से कोसों दूर ?

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आशीष मिश्र (गणतंत्र भारत) नई दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ है। इसे साल 2014 में एनडीए सरकार के सत्ता संभालने के कुछ ही महीनों बाद जनवरी 2015 में शुरू किया गया था। गणतंत्र भारत, गणतंत्र के पराक्रम को परखने के लिए इस पहल की समीक्षा कर रहा है। इसके लिए संसद में पेश आंकड़ों, सीएजी के दस्तावेजों और मीडिया रिपोर्टों को आधार बनाया गया है।

प्राथमिक तौर पर जो निष्कर्ष सामने आए हैं उसके हवाले से कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस महत्वाकांक्षी पहल को उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना इसे लिया जाना चाहिए थे। सबसे बड़ी कमी, इस पहल के कार्यान्वयन के लिए जारी दिशानिर्देशों के अनुपालन का अभाव है। साथ ही इसके लिए आवंटित धनराशि का पर्याप्त इस्तेमाल ना होना भी अपेक्षित लाभ ना हासिल कर पाने की बड़ी वजह है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय स्थायी समित ने 2016-17 की अपनी रिपोर्ट में इस मामले पर गंभीरता चिंता व्यक्त की थी।    

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना  

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना को शुरू करने का उद्देश्य कन्या भ्रूण हत्या को रोकना, बच्चियों के जीवन को सुरक्षित करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों में उनकी सहभागिता को प्रोत्साहन देना और उनकी शिक्षा को सुनिश्चित करना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना की शुरुआत हरियाण में की जो लैंगिक अनुपात की दृष्टि से देश का सबसे पिछड़ा राज्य है। प्रारंभिक तौर पर इस योजना के लिए 100 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गय़ा और इसे देश के 100 जिलों में शुरू किया गय़ा। आज ये योजना देश के तकरीबन हर जिले में लागू हो चुकी है। ये योजना महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संयुक्त पहल थी। इस योजना को जागरूकता अभियानों, बालिका शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा को प्रोत्साहन देने संबंधी योजनाओं और कन्या के जन्म पर उसके परिवार को सहायता देने की नीतियों के माध्यम से कार्यान्वित किया जा रहा है। इसमें टेलीविजन, विज्ञापन, रेडियो जिंगल्स,, एसएमएस कैंपेन और पत्र-पत्रिकाओं जैसे मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल किया जा रहा है।

योजना से लाभ क्या हुआ

इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश में बच्चों के लैंगिक अनुपात को बेहतर बनाना है। इसमें कोई दोराय नहीं कि इसमें तेजी के साथ बेहतरी हो रही है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के हेल्थ मैंनेजमेंट इनफॉरमेशन सिस्टम से मिली जानकारी के अनुसार, साल 2014-15 में प्रति 1000 लड़कों पर 918 लड़कियों का अनुपात, साल 2019- 20 में बढ़कर 934 लड़कियां प्रति हजार लड़कों पर पहुंच गया। असम, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड वे राज्य हैं जिन्होंने इस योजना के लागू होने के साथ लगातार बेहतर प्रदर्शन किया है।

आवंटित फंड का इस्तेमाल नहीं

सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में स्पष्ट किया कि पिछले 6 सालों में इस योजना के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवंटित की गई कुल धनराशि का सिर्फ 62 फीसदी ही इस्तेमाल किया गया। साल 2019- 20 में इस योजना के लिए कुल 123. 84 करोड़ रुपए राज्यों को आवंटित किए गए जिसमे से सिर्फ 67.62 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए। ये आवंटित राशि का सिर्फ 54.6 प्रतिशत है।   

इसी तरह मीडिया और प्रचार अभियानों पर खर्च की जाने वाली राशि से जुड़े तथ्य भी हैं। योजना की शुरुआत से लेकर इस काम के लिए कुल 928 करोड़ रुपयों का आवंटन हुआ जिसमें से 2 मार्च 2020 तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार सिर्फ 540. 92 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए। ये इस मद में आवंटित कुल राशि का केवल 58 प्रतिशत है। साल 2020-21 में इस मद में 280 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। सितंबर 2020 तक सिर्फ 96.7 करोड़ रुपए ही खर्च हुए।   

इस योजना के तहत राज्यों को जो ग्रांट सहायता के रूप में मिलती है उससे पहल संबंधी गतिविधियों, टास्क फोर्स की बैठकों, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण काम, जागरूकता अभियान और निगरानी एवं मूल्यांकन प्रणाली से जुड़ा काम किया जाता है। राज्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे इन मदों पर होने वाले खर्च का अलग से हिसाब रखें और ऑडिट कराएं। उन्हें केंद्र सरकार को हर तीन महीने पर खर्च का ब्यौरा और योजना की प्रगति रिपोर्ट सौंपनी होती है।  

बिहार और ओडिशा का सबसे खऱाब प्रदर्शन

आश्चर्य की बात तो ये है कि, इस योजना में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य बिहार है जिसने कुल आवंटित राशि का महज़ 12.2 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च किया। ओडिशा का स्थान दूसरा है। उसने इस मद में आवंटित कुल पैसे का सिर्फ 14.6 प्रतिशत ही खर्च किया। झारखंड जैसे पिछड़े राज्य ने भी सिर्फ 37 प्रतिशत पैसा खर्च किया। सभी प्रमुख और बड़े राज्यों ने, जिसमें, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल हैं, इस काम के लिए आवंटित पैसों में से आधे से ज्यादा का इस्तेमाल किया।    

दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों का बेहतर प्रद्रर्शन

दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के राज्यों ने इस पहल को आगे बढाया और करीब 80 प्रतिशत तक आवंटित पैसों का इस्तेमाल कर लिया। सिक्किम, मिजोरम, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, नागालैंड और पुदुच्चेरी ने योजना पर जमकर काम किया और इस मद में मिले पैसों का 80 फीसदी से ज्यादा इस्तेमाल कर डाला। पंजाब, तेलंगाना और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों ने भी 60 फीसदी से ज्यादा आवंटित राशि खर्च की।  

दिशानिर्देशों का अनुपालन नहीं  

पंजाब और हरियाणा से मिली सीएजी रिपोर्टों में इस योजना के कार्यन्वयन का विश्लेषण किया गया और इसमें आने वाली कुछ चुनौतियों को सामने रखा गया। पहली चुनौती, फंड के इस्तेमाल के ना हो पाने की है। हरियाणा में कुरक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रमोद कुमार वाजपेयी के अनुसार, इसकी एक बड़ी वजह राज्यों के पास इस य़ोजना के बारे में किसी ठोस कार्यनीति का अभाव है। आमतौर पर वे ऐसी योजनाएं एनजीओ वगैरह के सहयोग से चलाते हैं। पैसे के खर्च का ऑडिट और उसकी समीक्षा रिपोर्ट भेजना राज्य सरकारों के लिए मुश्किल भरा काम है। वे इससे बचने की कोशिश करती हैं।

प्रोफेसर वाजपेयी एक और तथ्य की तरफ ध्यान दिलाते हैं वो है इस योजना को लेकर टास्क फोर्स की बैठकों का टलना। सीएजी की रिपोर्ट में भी इसकी तरफ उंगली उठाई गई है। वाजपेयी बताते हैं कि, इस योजना के संबंध में जो दिशा निर्देश जारी किए गए थे उनमें योजना की समीक्षा के लिए टास्कफोर्स की बैठकों को बहुत अहमियत दी  गई थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बैठकें तो कभी कभार ही होती है। कोई इनपुट ना मिलने से योजना भी सुस्त चाल से ही चल रही है।  

प्रोफेसर वाजपेयी के अनुसार, इस योजना के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए बहुत जरूरी है इसकी कड़ी निगरानी और इसके कार्यान्वयन में सम्मिलित सभी इकाइयों के बीच उचित समन्वयन। वे ये भी कहते हैं कि, इस योजना को अगर सचमुच में अपेक्षित नतीजों पर खरा उतरना है तो जमीनी स्तर पर लड़कियों को बतौर स्वयंसेवक इस मुहिम से जोड़ना होगा। वे ही इसकी निगरानी करेंगी और वे योजना के रोल मॉडल के रूप में समाज के सामने भी होंगी। तभी हम इस योजना से अपेक्षित नतीजों की उम्मीद कर सकते हैं।

फोटो सौजन्य – सोशल मीडिया

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