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क्यों जरूरी हैं भारत के लिए ऊर्जा के गैर पारंपरिक संसाधन ?

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न्यूज़ डेस्क (गणतंत्र भारत) नई दिल्ली:  भारत दुनिया का चौथा सबसे ज्यादा ऊर्जा की खपत वाला देश है। उसकी गिनती अमेरिका, रूस और चीन के बाद होती है। हालांकि प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत के लिहाज से भारत दुनिया के तमाम विकसित देशों के मुकाबले काफी पीछे है। अमेरिकी एनर्जी इनफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए पश्चिम एशिया से तेल आयात पर निर्भर करता है और देश में उसके पास खुद के 5.5 अरब बैरल तेल का भंडार है। कोयले को ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत बताते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दुनिया का पांचवां सबसे ज्यादा कोयले का भंडार है। देखा जाए तो भारत दुनिया के तमाम दूसरे विकासशील देशों की तरह अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए खासतौर से ऊर्जा के पारंपरिक संसाधनों पर ही निर्भर कर रहा है। लेकिन समय के साथ ऊर्जा के पारंपरिक संसाधनों का क्षरण होता जा रहा है और जल्दी ही वे खत्म हो जाएंगे। इस दृष्टि से दुनिया के लगभग सभी देश ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों की तरफ निगाह दौड़ा रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा जोर अक्षय ऊर्जा और हरित ऊर्जा के संसाधानों पर हैं। इन संसाधनों से पैदा हुई ऊर्जा सस्ती तो होगी ही साथ ही वह पर्यावरण और पृथ्वी की सुरक्षा की दृष्टि से भी कारगर होगी।

किसी भी देश के विकास का इंजन ऊर्जा को माना जा सकता है। किसी देश में प्रति व्यक्ति होने वाली ऊर्जा की खपत वहां के जीवन स्तर का भी सूचक है। यही नहीं, आर्थिक विकास का भी ऊर्जा उपयोग के साथ गहरा संबंध होता है। इसलिए भारत जैसी तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए ऊर्जा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बहुत ज़रूरी है। इन्हीं पहलुओं के मद्देनज़र एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेल उत्पादक देशों से ऊर्जा की लागत को कम करने का आग्रह किया ताकि वैश्विक अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके। इसी क्रम में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की पहली बैठक में वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से 40 फीसदी बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।

इसमें दो राय नहीं कि तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के भरण-पोषण और सुख-सुविधाओं के लिए संसाधनों की तेज़ी से खपत हो रही है। लेकिन इससे पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्याओं का जन्म हो रहा है। ऐसे में सवाल है कि बढ़ती जनसंख्या और ऊर्जा आपूर्ति के बीच कैसे संतुलन बनाया जाए? सवाल यह भी है कि पर्यावण और भविष्य की पीढ़ी को ध्यान में रखकर भारत की आगे की रणनीति क्या होनी चाहिए। साथ ही वर्तमान में भारत की किन स्रोतों पर कितनी निर्भरता है और इसे कैसे बदला जा सकता है?

भारत में पारंपरिक ऊर्जा पर भारी निर्भरता   

भारत अभी भी अपनी कुल ऊर्जा क्षमता का 40 प्रतिशत परम्परागत ईंधन के रूप में इस्तेमाल करता है।  सरकार ने 1950 में एक कार्यक्रम शुरू किया था। इसके अन्तर्गत जैव ऊर्जा संयन्त्रों का निर्माण किया जाता था और लोगों को उनके बारे में बताया जाता था। सौर कुकर विकसित करने पर भी कुछ अनुसंधान किया गया लेकिन नए अक्षय ऊर्जा के स्रोत विकसित करने की दिशा में गम्भीर प्रयास 1973-74 में तेल के मूल्यों में भारी बढ़ोत्तरी के बाद किए गए। यह कार्यक्रम पहले भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अन्तर्गत शुरू किया गया और फिर उसे एक नए विभाग गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत विभाग के अन्तर्गत लाया गया। 1990 में इस विभाग को पूर्ण पृथक मन्त्रालय में बदल दिया गया।

जैव ईंधन के प्रयोग का एक प्रमुख दुष्परिणाम वातावरण पर उसका हानिकारक प्रभाव है। वह दुष्परिणाम विश्व और स्थानीय दोनों स्तरों पर हो रहा है। 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के समझौते की रूपरेखा तैयार की गई। इसमें स्पष्ट रूप से धरती का तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाउस गैसों,  विशेष रूप से कार्बन-डाई-ऑक्साइड का इस्तेमाल घटाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया।

अक्षय ऊर्जा है बेहतर विकल्प

गौर करने वाली बात है कि पिछले 150 से 200 वर्षों में मनुष्य ने ऊर्जा ज़रुरतों को पूरा करने के लिए पृथ्वी की सतह के नीचे दबे संसाधनों पर भरोसा किया है। लेकिन अब वक़्त आ गया है कि सुरक्षित भविष्य के लिये सौर और पवन ऊर्जा जैसे उपलब्ध संसाधनों का ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग किया जाए। इसके लिए एक मज़बूत नीतिगत ढांचे की आवश्यकता होगी जिसमें भारत अहम् भूमिका निभा सकता है। इसके लिये भारत संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों को अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के मंच पर ले जाना चाहता है जिससे ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सभी देशों का ध्यान अक्षय ऊर्जा स्रोतों की ओर खींचा जा सके।

अक्षय ऊर्जा क्या है ?

अक्षय ऊर्जा वह ऊर्जा है जो प्रदूषण का कारण नहीं बनती, तथा जिनके स्त्रोतों का क्षय नहीं होता या फिर जिनके स्रोतों का फिर से इस्तेमाल होता रहा है। पवन ऊर्जा, जलविद्युत ऊर्जा, ज्वारभाटा से प्राप्त ऊर्जा, बायोमास और सौर ऊर्जा आदि अक्षय ऊर्जा के कुछ उदाहरण हैं।

अक्षय ऊर्जा में भारत की स्थिति ?

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित हमारे योगदानों और एक स्वच्छ ग्रह के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए भारत ने संकल्प लिया है कि 2030 तक बिजली उत्पादन की हमारी 40 फीसदी स्थापित क्षमता ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों पर आधारित होगी। साथ ही यह भी निर्धारित किया गया है कि 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित की जाएगी। इसमें सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट, पवन ऊर्जा से 60 गीगावाट, बायो-पावर से 10 गीगावाट और छोटी पनबिजली परियोजनाओं से 5 गीगावाट क्षमता शामिल है।

इस महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के साथ ही भारत विश्व के सबसे बड़े स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की जमात में शामिल हो जाएगा। यहां तक कि वह कई विकसित देशों से भी आगे निकल जाएगा। फिलहाल 2018 में देश की कुल स्थापित क्षमता में तापीय ऊर्जा की 63.84 फीसदी, नाभिकीय ऊर्जा की 1.95 फीसदी, पनबिजली की 13.09 फीसदी और नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 21.12 फीसदी है।

अंतर्राष्ट्रीय़ सौर गठबंधन

अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन एक अंतर्राष्ट्रीय अंतर-सरकारी संगठन है।  इसका मुख्यालय हरियाणा के गुरुग्राम में है। अब तक 71 देशों ने इस गठबंधन के फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इनमें से 48 देशों ने इसे मंज़ूरी दे दी है। इस गठबंधन का प्राथमिक उद्देश्य जीवाश्म ईंधन पर ऊर्जा की निर्भरता को ख़त्म कर सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना है। इसके अलावा, सभी सदस्य देशों को सस्ती दरों पर सोलर तकनीक उपलब्ध कराना और इस क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास  को बढ़ावा देना आदि भी इसके उद्देश्यों में शामिल है।

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