लखनऊ (गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र ) : अभी कुछ दिनों पहले एक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ से कानून- व्यवस्था को लेकर एक सवाल पूछा गया। सवाल पुलिस एनकाउंटर से जुड़ा हुआ था। प्रश्न था, ‘लॉ एंड ऑर्डर में आपका तरीका वही चलेगा….गाड़ी यूं ही पलटेगी।’
जवाब में मुख्यमंत्री ने हंसते हुए कहा कि, ‘जनता की सुरक्षा और सम्मान के लिए क़ानून का राज कैसे स्थापित होगा, ये एजेंसियां तय करेंगी और उसके अनुसार ही उसे आगे बढ़ाएंगी।’
सवाल- यानी गाड़ी पलटेगी?
योगी आदित्यनाथ – ‘देखिए एक्सिडेंट हो सकता है। इसमें कौन सी दो राय है? एक्सिडेंट किसी का भी हो सकता है।’
योगी आदित्य नाथ के जवाब से हॉल तालियों की गडगड़ाहट से गूंज उठा।
उत्तर प्रदेश में माफिया अतीक अहमद के बेटे असद और उसके साथी गुलाम को पुलिस ने झांसी के पास एक मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया। पुलिस के दावे को लेकर फिर सवाल उठे। राजनीति से लेकर मानवाधिकार संगठनों ने मामले को संदिग्ध बताते हुए उसकी जांच कराने का आग्रह किया। सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर इस मुठभेड़ और माफिया के खिलाफ हर तरह की कार्रवाई को न्यायोचित ठहराने वाले लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा।
गणतंत्र भारत पुलिस के दावे पर सवाल नहीं उठा रहा। संभव है कि पुलिस का दावा सही हो। सवाल उस जन मानसिकता पर है जो कथित न्याय के कबीलाई तरीके का जयकारा लगा रही है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाजविज्ञानी अंशुल दवे के अनुसार, ‘ऐसी घटनाओं पर जनता की प्रतिक्रिया कहीं न कहीं देश की न्यायिक प्रक्रिया और संस्थानों पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। कानूनी दांव पेंच और राजनीतिक शह से ऐसे अपराधी अदालतों से छूट जाते हैं और समाज में नासूर की तरह से जकड़ बना कर बैठे रहते हैं।’ दवे मानते हैं कि, ‘इसीलिए अब जनता भी फौरी न्याय में ज्यादा यकीन करती है और उसको अपना समर्थन देती है। यहां भी मुख्यमंत्री को रैंबो जैसा प्रदर्शित किया जा रहा है।’
लेकिन अधिवक्ता ज्योति शाह ऐसी जन प्रतिक्रियाओं को एक सभ्य समाज के लिए खतरनाक मानती है और इसे देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती हैं। वे कहती हैं कि, ‘ये जनता का न्याय व्यवस्था से मोहभंग का प्रतीक है और इसका फायदा राज्यसत्ता प्रशासन के जरिए अपने हित साधने में करती है। वो इस बहाने जनभावनाओं का ध्रुवीकरण करती है और अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से उसे एक मोड़ देती हैं।’
शाह कहती हैं कि, ‘इसमें कोई दोराय नहीं कि उत्तर प्रदेश हो या देश का कोई भी राज्य जो सरकारें सत्ता में रहती है उनका अपना एक माफिया तंत्र होता है। सब अपने-अपने माफिया पालते हैं। यूपी में पिछले दशकों में सरकारों ने ढेर सारे माफिया पाले। कहीं अतीक तो कहीं मुख्तार अंसारी, कहीं बृजेश सिंह तो कहीं धनंजय सिंह। विकास दुबे भी इसी कड़ी में शामिल था। सरकारी परिभाषा को माने तो उसके लिए माफिया सिर्फ वो है जो उसके खांचे में फिट नहीं बैठता। आज अतीक, मुख्तार इसी खांचे में हैं।’
दवे ध्यान दिलाते हैं कि, ‘इसी प्रवृत्ति का नतीजा हैदराबाद का वो कांड था जब पुलिस ने रेप के एक मामले में चार युवकों को एक मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था। जनता का जयकारा हुआ। पुलिस दल का फूल मालाओं से स्वागत हुआ था। पुलिस आयुक्त टेलीविजन चैनलों पर चहकते दिखाई दिए। हो हल्ला मचा तो, अदालत ने मामले का संज्ञान लेते हुए जांच बैठाई और मामला फर्जी मुठभेड़ का पाया गया। पुलिसकर्मी आज जेल में हैं।’
ज्योति शाह कहती हैं कि, ‘आज पुलिस की हर मुठभेड़ शक के दायरे में होती है। एक रटी-रटाई स्क्रिप्ट। अधिकतर मामलों में बताने वाला भी जानता है कि वो झूठ बोल रहा है और सुनने वाला भी। अदालतें भी धृतराष्ट्र बनी रहती हैं। ये ठीक नहीं है। शक वाले मामलों की तत्काल न्यायिक जांच होनी चाहिए। कम से कम पुलिस-प्रशासन की साख के लिए ही सही। लेकिन सवाल उठे तो शंका समाधान होना जरूरी है।’ शाह मानती हैं कि, ‘मुठभेड़ों में न्याय तलाशने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है और किसी भी देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए एक चुनौती है।’
जाने-माने वकील और स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर रहे उज्ज्वल निकम के अनुसार, ‘ एनकाउंटर को सामाजिक वैधता और लोकप्रिय समर्थन मिलता है, तो ये न्यायपालिका के लिए ख़तरनाक होगा। निकम कहते हैं कि, आम लोगों में ये भावना है कि अपराधियों को सज़ा नहीं मिलती है और ये न्यायिक जटिलता में उलझ जाती है। ऐसे में अपराधियों को सीधे मार देना चाहिए। ये हमारी ज़िम्मेदारी है कि इंसाफ़ को सुनिश्चित करें, नहीं तो एनकाउंटर को लेकर लोकप्रिय समर्थन बढ़ेगा।’
26 जुलाई 2022 को सरकार ने पुलिस एनकाउंटर के बारे में लोकसभा में कुछ आंकड़े रखे। आंकड़ों के अनुसार, 2020-2021 में कुल 82 पुलिस एनकाउंटर हुए जो 2021-22 में बढ़कर 151 हो गए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2013-14 से 2018-19 तक यानी पांच सालों में पुलिस एनकाउंटर में क्रमवार 137, 188, 179, 169 और 164 लोगों की जान गई है। रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस एनकाउंटर से इन पांच सालों में सबसे ज़्यादा मौत उत्तर प्रदेश में हुई।
एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट
एनकाउंटर को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने करीब एक दशक पहले एक अहम टिप्पणी की थी। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस सी.के. प्रसाद की खंडपीठ ने कहा था कि, पुलिसकर्मी क़ानून के रक्षक होते हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे लोगों की रक्षा करें न कि कॉन्ट्रैक्ट किलर की तरह मार दें। पुलिसकर्मियों की ओर से फ़र्ज़ी एनकाउंटर में लोगों को मारना निर्मम हत्या है। इस ‘रेअरेस्ट ऑफ रेअर’ अपराध की तरह देखना चाहिए। फ़र्ज़ी एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को मौत की सज़ा मिलनी चाहिए। जस्टिस काटजू ने कहा कि, अगर अपराध कोई सामान्य व्यक्ति करता है तो सज़ा सामान्य होनी चाहिए लेकिन अपराध पुलिस वाले करते हैं तो सज़ा कड़ी से कड़ी मिलनी चाहिए क्योंकि उनकी वो हरकत उनकी ड्यूटी के बिल्कुल उलट होती है।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया