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सिविल सेवा में बदलाव की मंशा कहीं ‘वफादार’ अफसरों की तलाश तो नहीं ?

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र): केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव और निदेशक के 30 पदों पर सीधी भर्ती के विज्ञापन के साथ ही भारत में सिविल सेवा के भविष्य को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संसद में सिविल सेवा पर जिस तरह का तंज कसा उससे ये बात तो स्पष्ट हो गई कि सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री कार्यालय देश में सिविल सेवा के मौजूदा स्वरूप में ठोस बदलाव की तैयारी कर रहा है। ये तैयारी पिछले तीन सालों से चल रही है जब सरकार ने सिविल सेवकों को उनके फाउंडेशन कोर्स में उनके प्रदर्शन को देखते हुए तैनाती देने की पहल की थी।

ताजी चर्चा की वजह संयुक्त सचिव और निदेशकों की सीधी भर्ती के विज्ञापन के अलावा प्रधानमंत्री का सिविल सेवकों के बारे में संसद में दिया गया बयान है। इस बयान में प्रधानमंत्री ने सिविल सेवा के बारे में जो कहा वो इस तरह से है :

क्या सब कुछ बाबू ही करेंगे ? आईएएस बन गए तो इसका क्या मतलब ? क्या वो फर्टिलाइज़ का कारखान भी चलाएंगे और कैमिकल का कारखाना भी ? आईएएस हो गए तो क्या वो हवाई जहाज़ भी चलाएगा ? ये कौन सी बड़ी ताकत हमने बना कर रख दी। क्या हम बाबुओं के हाथ में देश सौंपने वाले हैं ?

सीधी भर्ती और प्रधानमंत्री का बयान दोनों ही बातों से कई सवाल सामने आए। मीडिया रिपोर्टों में ऐसी खबरें आईं कि सीधी भर्ती के चलते सिविल सेवा में आरक्षित पदों पर असर पड़ेगा और उनकी संख्या कम हो जाएगी। लंदन स्थित किंग्स इंडिया इस्टीट्यूट में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्रोफेसर क्रिस्टोफे जैफरलॉट ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने आलेख में बताया कि, साल 2014 से 2018 के बीच संघीय लोकसेवा आयोग से चयनित आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों की संख्या में करीब 40 प्रतिशत तक कमी आई है और वो 1236 से घटकर 759 पर आ पहुंची।

ये बात भी सही हैं कि सीधी भर्ती में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है और निश्चित रूप से इस तरह की भर्तियों से सिविल सेवा परीक्षा से होने वाली भर्तिय़ों में कमी आएगी। सरकार की दलील है कि सीधी भर्ती के पद पेशेवरों के लिए हैं और संविदा के तहत हैं इसलिए यहां पर आरक्षण जैसी चीज नहीं है।

प्रधानमंत्री कार्यालय पहले से ही सिविल सेवा को लेकर एक अलग दृष्टिकोण रखता रहा है। साल 2018 में ही प्रधानमंत्री कार्य़ालय की तरफ से एक पहल की गई थी कि जिसके तहत  सिविल सेवा परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करना ही किसी उम्मीदवार के लिए उसकी पसंद की अखिल भारतीय सेवा में दाखिल होने के लिए काफी नहीं रह जाता बल्कि प्रोबेशन पर काम कर रहे सफल अभ्यर्थी किस सेवा में जाएंगे और उन्हें कौन सा कैडर मिलेगा,  इस पर फैसला लेने के लिए अलग से मूल्यांकन करने पर विचार करने का प्रावधान किया जाना था और उसके लिए ‘फाउंडेशन कोर्स’ में उम्मीदवार के प्रदर्शन को आधार बनाया जाना था। अगर, प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता  तो सैद्धांतिक तौर पर किसी अभ्यर्थी के लिए कम रैंक आने के बावजूद ऊपर की रैंक से मिलने वाली सेवा में पहुंचना आसान हो जाता।

केंद्र के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने प्रधानमंत्री कार्यालय के इस प्रस्ताव पर विभिन्न मंत्रालयों से सुझाव मांगा  लेकिन इससे पहले ही सिविल सेवा के सेवानिवृत्त और सेवारत अफसर भड़क उठे।

आपत्तियां क्या थीं ?

उनकी तीन खास दिक्कतें हैं। पहला,  किसी प्रशिक्षु को आवंटित की जाने वाली सेवा पर फैसला करने के लिए फाउंडेशन कोर्स में उसके प्रदर्शन का इस्तेमाल करने से यूपीएससी परीक्षा की वस्तुपरकता को नुकसान पहुंचेगा और प्रशिक्षुओं को अपने परीक्षकों के व्यक्तिपरक मूल्यांकन पर निर्भर होना पड़ेगा। दूसरा, कुछ अधिकारी इस नई व्यवस्था को लागू करने की इच्छा के पीछे गहरी चाल देख रहे हैं। उन्हें इस बात की शंका है कि आसानी से वश में की जा सकने वाली अकादमियां सबसे ज्यादा मांग में रहने वाली सेवाओं का दरवाजा उन लोगों के लिए खोल देंगी  जिनका नजरिया सरकार की सोच के अनुरूप होगा। इससे धीरे-धीरे एक ‘वफादार’ या प्रतिबद्ध नौकरशाही के निर्माण का रास्ता साफ हो जाएगा। तीसरा, ये प्रस्ताव कई सारे तकनीकी सवालों को जन्म देने वाला है और सेवा आवंटन और ट्रेनिंग की मौजूदा व्यवस्था को देखते हुए  इन्हें आसानी से सुलझाया जाना मुमकिन नहीं है।

ये आपत्तियां पूरी तरह से निर्मूल भी नहीं है। पिछले दिनों ऐसा देखने में आया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नजदीकी रखने वाले संकल्प कोचिंग सेंटर बड़ी तेजी के साथ देश के विभिन्न स्थानों पर खोले गए हैं। सिविल सेवा के लिए कोचिंग देने वाले इन सेंटरों में तमाम रिटायर्ड और सेवारत अधिकारी नियमित तैर पर लेक्चर देने के लिए आते हैं।

फोटो सौजन्य – सोशल मीडिया  

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