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राजद्रोह कानून: कितना हुआ जायज़ इस्तेमाल? समझिए, क्या हैं तर्क-वितर्क

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई हो रही थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने अचानक एक सवाल दाग कर सबको चकित कर दिया। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर सवाल पूछा था कि क्या आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत को राजद्रोह क़ानून की ज़रूरत है ? इससे पहले, जून 2021 में उन्होंने एक स्मृति समारोह में राजद्रोह कानून की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि, तार्किक और सही सार्वजनिक संवाद को भी मानवीय गरिमा के एक महत्वपूर्ण पहलू की तरह देखा जाना चाहिए क्योंकि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी है। उनका इशारा राजद्रोह कानून के बेजा इस्तेमाल की तरफ था।

बहस यहीं से शुरू हुई। केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही अंग्रेजों के समय में बनाए गए अर्थहीन हो चुके तमाम कानूनों को रद्द की घोषणा कर दी। कई कानून खत्म होने की प्रक्रिया में हैं। राजद्रोह कानून पर मुख्य न्यायाधीश पहले ही सवाल उठा चुके थे तो मामला गरमा गया। अब सुप्रीम कोर्ट और सरकार इस मामले में आमने-सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को लेकर अपना रुख साफ कर दिया है कि वो इसे खत्म करने के पक्ष में है। केंद्र सरकार, ने पहले तो न कर दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख देख कर कानून की समीक्षा करने की बात कही है। समीक्षा की कोई टाइम लाइन नहीं है और सरकार का अब तक का रुख कभी हां तो कभी न वाला ही रहा है।

हालांकि सरकार ने इस कानून की कोई टाइमलाइन तय नहीं की है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान इस पूरे मामले में ‘आशा और उम्मीद’ शब्द का इस्तेमाल करते हुए तीन खास बातें कहीं-

पहली, जब तक केंद्र सरकार क़ानून की समीक्षा नहीं कर लेती तब तक राजद्रोह क़ानून की धारा के तहत कोई नई एफ़आईआर दर्ज़ न हो। दूसरी, राजद्रोह क़ानून के तहत लंबित सभी मामलों में आगे कोई कार्रवाई न हो। और,  तीसरी, इस धारा के तहत दर्ज़ मामले में जेल में बंद लोग ज़मानत के लिए कोर्ट जा सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए केंद्रीय क़ानून मंत्री किरन रिजिजू ने कहा कि, अदालत को विधायिका और सरकार का सम्मान करना चाहिए और सरकार को अदालतों का। दोनों के कार्यक्षेत्र निर्धारित है। किसी को भी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए।

क्या है राजद्रोह का विवादित कानून

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो उसे राजद्रोह का अभियुक्त है माना जाता है। राजद्रोह एक ग़ैर-ज़मानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास के साथ जुर्माना भी है।

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों” तक सीमित होना चाहिए।

राजद्रोह कानून का इतिहास

थॉमस मैकाले ने भारतीय दंड संहिता का प्रारूप तय करते समय राजद्रोह से संबंधित धाराओ का उल्लेख किया था लेकिन उन्हें आईपीसी का हिस्सा नहीं बनाया गया। 1890 में धारा 124 ए के तहत राजद्रोह कानून को आईपीसी का हिस्सा बनाया गया। राजद्रोह का कानून बनने के बाद अंग्रेजों ने इस कानून का इस्तेमाल ब्रिटिश राज का विरोध करने वाले राजनेताओं पर आजमाया। जिन लोगों पर इस कानून का इस्तेमाल किया गया उनमें बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, शौकत और मुहम्मद अली, मौलाना आजाद और महात्मा गांधी जैसे राजनेता शामिल थे। 1898 में राजद्रोह कानून के तहत क्वीन एक्सप्रेस बनाम बाल गंगाधर तिलक मुकदमा शुरू हुआ।

1950 में रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में हाईकोर्ट ने साफ-साफ कहा कि जब तक मामला सरकार और व्यवस्था को उखाड़ फेंकने जैसा न हो तब तक राजद्रोह जैसा कानून नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसी तरह से पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य (1951) और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रामनंदन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959 ) के वाद में स्पष्ट तौर पर राजद्रोह कानून को औपनिवेशिक कानून बताया और कहा कि अंग्रेजों ने इस कानून की आड़ लेते हुए ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करने वालों पर इसका इस्तेमाल किया। इसके बाद, केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य का मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन आया।

राजद्रोह कानून को लेकर कुछ अन्य महत्वपूर्ण वादों में 2011 का छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का डॉ. बिनायक सेन बनाम छत्तीसगढ़ राज्य और 2016 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का अरुण जेटली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद रहा है। बिनायक सेन बनाम छत्तीसगढ़ के मुकदमें में हाईकोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को राजद्रोह का आरोपी बनाया जा सकता है अगर उसने उकसाने वाला भाषण खुद न भी दिया लेकिन उसे साझा किया हो।

अरुण जेटली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका की आलोचना ही राजद्रोह का आधार नहीं बन सकता है। जेटली ने अपने ब्लॉग में नेशनल जुडीशियल कमीशन के द्वारा की गई नियुक्तियों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित करने के निर्णय की आलोचना की थी।

दुनिया के दूसरे देशों की बात की जाए तो इंगलैंड में 2009 में जबकि ऑस्ट्रेलिया में 2010 में राजद्रोह कानून को खत्म कर दिया गया। सिंगापुर भी इस कानून को समाप्त कर दिया गया। अमेरिका के संघीय कानून में फेडरल क्रिमनल कोड 2384 के तहत राजद्रोह कानून है लेकिन उसका बिरले ही इस्तेमाल होता है। मौजूदा वक्त में इस कानून की धाराएं 6 जनवरी 2021 के उन दंगाइयों पर लगाई गईं जिन्होंने व्हाइट हाउस पर हमला किया था।

ताजा संदर्भ

पिछले कुछ वर्षों में भारत में राजद्रोह कानून का इस्तेमाल काफी विवादों में रहा। 2014 से 2019 के बीच राजद्रोह कानून के तहत कुल 559 गिरफ्तारियां की गई जबकि दोषी सिर्फ 10 लोग ही पाए गए। ये बात भी समाने आई कि पत्रकारों और बुद्धघिजीवियों के खिलाफ इस कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया। अभिव्यक्ति की आजागी के मामले में भारत की ताजा रैंकिंग 180 देशों में 150 वें नंबर पर पहुंच गई और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की काफी फजीहत हुई।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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