नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : जंगली जानवर और आवारा मवेशी किसानों के लिए बड़ा सिरदर्द बन गए हैं, खासकर देश के पहाड़ी राज्यों में। इसके कारण किसान तो बदहाल हो ही रहे हैं, इन राज्यों और खासकर उत्तराखंड से पलायन भी तेजी से बढ़ रहा है। अब इन हालात के बदलने की उम्मीद जगाई है सेलिब्रिटी फूड किनोवा ने। मूल रूप से पेरू के इस बेहद पोषक अनाज को अब उत्तराखंड में भी उगाया जा रहा है। एक एनजीओ हाईफीड इसे उत्तराखंड में लेकर आया है। इसकी फसल तीन महीने में तैयार हो जाती है। इस लिहाज से साल में तीन बार इसकी खेती की जा सकती है।
किनोवा को जंगली जानवर नहीं खाते हैं, इस हिसाब से ये किसानों को भरपूर आमदनी देने वाली फसल साबित हो सकती है और पहाड़ से पलायन रोकने में कारगर साबित हो सकती है।
उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या बन गया है। रोजगार के साधनों की कमी के साथ ही खेती को बंदरों, सूअरों और सेही ने चौपट करके रख दिया है। इसके साथ ही पानी की कमी खेती के लिए एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रही है। इस कारण पलायन को रोकना और मुश्किल हो रहा है। उत्तराखंड से पिछले 10 सालों के दौरान करीब 30 लाख लोग पलायन कर चुके हैं।
किनोवा के पौधे छह-सात फीट तक होते हैं। यह चौलाई की तरह की फसल है। इसके बीज भी चौलाई या झंगोरा के आकार के होते हैं। इनके ऊपर जो कवच या शेल होता है, वो बेहद कड़वा होता है। इस कारण बंदर, चिड़िया और कोई अन्य जानवर इसे नुकसान नहीं पहुंचाते। इसके साथ ही इसे पानी की भी ज्यादा जरूरत नहीं होती। इस लिहाज से ये पानी की कमी वाले पहाड़ के खेतों के लिए एक खासी मुफीद फसल है। इसे खाने योग्य बनाने के लिए इस कवच को हटाना जरूरी होता है और ये काम अत्याधुनिक प्लांट्स में होता है। इसे गेहूं या किसी और अनाज के साथ मिलाकर खाया जा सकता है। इसे ज्वार आदि की तरह सीधे भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
उत्तराखंड में किनोवा की खेती की शुरुआत पौड़ी जिले के डाडा मंडल के मल्ला बनास गांव से की गई है। यहां ये प्रयोग कामयाब रहा है और किसान अब इसे ज्यादा से ज्यादा रकबे में उगाना चाहते हैं। किनोवा की कीमत बाजार में 300 से 500 रुपये प्रति किलो तक है। किनोवा प्रोटीन, कॉपर, आयरन, पोटेशियम, मैग्निशियम, विटामिन बी और फाइबर से भरपूर होता है। इस लिहाज से ये कुपोषण को दूर करने में भी मददगार साबित हो सकता है। एक एकड़ जमीन में करीब 10 कुंतल किनोवा हो जाता है।
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