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यूपी के चुनावी आग्निपथ पर मायावती ने क्यों चुनी एकला चलो की रणनीति ?

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र): दलित एवं पिछड़ों के नेता कांशीराम के राजनीतिक दर्शन का अहम पहलू था – राजनीति सत्ता के लिए करो, सत्ता हासिल ना हो पा रही हो तो ये देखो कि तुम सत्ता से खुद के लिए लाभ कैसे कमा सकते हो।

ऐसा लगता है बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती अपने राजनीतिक मार्गदर्शक कांशीराम के इसी राजनीतिक दर्शन पर अमल कर रही है। उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब हैं और राजनीतिक हलचल काफी तेज है। पहले, अखिलेश यादव और अब मायावती ने घोषणा कर दी है कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल से चुनावी तालमेल नहीं करेगी।

मायावती ने ये स्पष्टीकरण उस वक्त दिया जब मीडिया के एक तबके में ये खबर चली या चलवाई गई कि उत्तर प्रदेश में बीएसपी. ओवेसी और राजभर की पार्टी के साथ चुनाव में तालमेल करने जा रही है। मायावती ने स्पष्ट किया कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनावों में अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी और मीडिया के एक वर्ग में उड़ रही तालमेल की खबरें आधारहीन हैं। मायावती ने बहुजन समाज पार्टी के मीडिया सेल का कामकाज पार्टी नेता सतीश चंद्र मिश्र को देखने को कहा है ताकि पार्टी के बारे में ऐसी अफवाहें ना उड़े। मायावती ने ट्वीट किया कि, उनकी पार्टी सिर्फ़ पंजाब में गठबंधन में चुनाव लड़ने जा रही है। पंजाब में बीएसपी ने अकाली दल के साथ गठबंधन किया है।

क्या यह मायावती की रणनीति का हिस्सा है ?

मायावती पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक पटल पर महज औपचारिकता निभाने भर को दिखीं। हाल ही में वो तब चर्चा में आई थीं जब सोशल मीडिया पर उनको लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी वाला फ़िल्म अभिनेता रणदीप हुड्डा का एक पुराना वीडियो वायरल हुआ। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर का असर पूरे देश में दिखा। उत्तर प्रदेश में गंगा में उतराते शवों के मसले पर भी मायावती ने प्रतिक्रिया देने की रस्म अदायगी भर की। उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों पंचायत चुनाव हुए। मायावती की पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। कोरोना काल में मायावती और उनकी पार्टी की चुप्पी से भी कई सवाल पैदा हुए। हालंकि मायावती के कदम को भांप पाना थोड़ा कठिन काम है और उनकी पार्टी राजनीति में अप्रत्याशित कदम उठाने के लिए ही जानी जाती है।

यूपी की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि मायावती राजनीति के नफे नुकसान के मामले में माहिर खिलाड़ी हैं। वे अपनी ताकत और कमजोरी दोनों को भलीभांति जानती हैं। पंचायत चुनावों से उन्होंने अपनी पार्टी के भविष्य की थाह ले ली है और वे जो कुछ भी कर रही हैं उसी के अनुरूप कर रही हैं। मायावती को पता है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को रोकने और सत्ता तक पहुंचने से रोकने के लिए विपक्षी दलों को गठबंधन करना होगा। बहुत संभव हैं कि ये गठबंधन चुनाव बाद हो। ऐसी स्थिति में बारगेंनिंग के लिए वे अपने दरवाजे खुले रखना चाहती हैं। चुनाव बाद उनकी पार्टी की जो भी स्थिति होगी वे फैसला भी उसे देख कर ही करना चाहती हैं।

कांशी राम कहा करते थे राजनीति में कोई भी अछूत नहीं है। मायावती जानती हैं कि हो सकता है कि बीजेपी को ही उनकी जरूरत पड़ जाए और उनकी मदद से ही सरकार बन पाए ऐसी स्थिति में वे बीएसपी के लिए बारगेन करने की स्थिति में होंगी। यही वजह भी रही है कि जब सारे राजनीतिक दल कोरोना, अर्थव्यवस्था और बदहाली के सवाल पर नरेंद्र मोदी की सरकार को कोस रहे हैं मायावती सिर्फ राजनीतिक औपचारिकता निभा रही है और बीजजेपी के खिलाफ उनके सुर लगातार नरम बने हुए हैं। वैसे कहा ये भी जा रहा है कि मायावती की इस नरमी के पीछे सीबीआई और ईडी है जहां उनके और उनके परिवार के कई मामले फंसे हुए हैं।  

रावण से मिलती चुनौती

मायावती के लिए अपने वोटबैंक को अपने पक्ष में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने पिछले दिनों अपनी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष चित्तौड़ को बनाया है और उनका पहला काम उस वोटबैंक को अपने पक्ष में करना है जिस पर अब तक मायावती की दावेदारी हुआ करती थी। चित्तौड़  खुद कहते हैं कि चंद्रशेखर दबे कुचलों का साथ दे रहे हैं। समाज के लोगों का साथ दे रहे हैं। बहन जी खुद फील्ड में नहीं हैं। मिशन और मूवमेंट से हट गई हैं। चित्तौड़ की तरह ही दूसरे नेता भी चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी का दामन थाम रहे हैं। इसमें ऐसे भी लोग शामिल हैं जिन्हें लग रहा है कि बीएसपी का ग्राफ़ गिर रहा है और अपने राजनीतिक करियर और बहुजन मूवमेंट को ज़िंदा रखने के लिए वे नए विकल्पों को आज़माने को तैयार हैं।

अर्श से फर्श तक

2007 में बीएसपी के पास राज्य विधानसभा में 206 सीटें थीं और 10 साल के फासले में सीटों की ये संख्या घट कर 19 तक पहुंच गई। 2017 के विधानसभा चुनाव में ख़राब नतीजों के बाद, जब पार्टी का क़द कम हुआ तो बीएसपी बिखरने लगी। कई सारे नेता, जैसे- स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व कैबिनेट मंत्री और मौर्य समाज के बड़े नेता), बृजेश पाठक और नसीमुद्दीन सिद्दीकी या तो पार्टी से निकाल दिए गए या फिर पार्टी छोड़ कर चले गए। नसीमुद्दीन सिद्दीकी अब कांग्रेसी में हैं, तो स्वामी प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक योगी सरकार में मंत्री हैं।

हिंदुत्व अस्मिता बनाम जातीय अस्मिता

दलित चिंतक और मायावती  पर किताब लिखने वाले प्रोफेसर बद्री नारायण ने बदलती दलित अस्मिता के सवाल पर एक किताब रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व लिखी है। इस किताब में उन्होंने भारत में दलित अस्मिता के बदलते स्वरूप की तरफ इशारा करते हुए लिखा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में मायावती को पीछे छोड़ दिया है। संघ ने जातीय अस्मिता का एक एक्सटेंशन हिन्दू अस्मिता में करने की कोशिश की है। अधिकतर जातीय नायक कांशीराम ने खोजे थे। लेकिन उनकी पुनर्व्याख्या और उन्हें नया अर्थ देते हुए अपने सामाजिक कार्यों से जोड़ने का काम संघ कर रहा है। वे मानते हैं कि 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में मायावती के लिए सबसे बड़ी चुनौती इसी नए समीकरण से निपटने की होगी और बहुजन समाज पार्टी के पास उसका कोई तोड़ फिलहाल तो नजर नहीं आता।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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