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जब गांधी ने कहा समाजवाद को जानना है तो नरेंद्र देव से जानो…

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(आज 19 फरवरी को आचार्य नरेंद्र देव की पुण्यतिथि के अवसर पर ये आलेख समाजवाद के प्रहरी किताब से साभार लिया गया है। पुस्तक विभिन्न समाजवादी चिंतकों और राजनेताओं के साथ लेखक के संस्मरणों पर आधारित है। पुस्तक के लेखक, कैलाश चंद्र मिश्र स्वयं 1950 के दशक में उत्तर भारत में समाजवादी छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं में शामिल थे।)  

भारत के इतिहास में महात्मा गांधी के अवतरण के साथ ही जिस प्रभावपूर्ण युग का उदय हुआ, आचार्य नरेंद्र देव उसके दैदीप्यमान नक्षत्र थे। उन्होंने राजनीति, इतिहास, पत्रकारिता, कला, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और दर्शन को एक साथ प्रभावित किया। उनका व्यक्तित्व विभूतियों से सम्पन्न था। मैंने उनके चरणों में बैठकर लखनऊ विश्वविद्यालय और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। असाधारण व्यक्तित्व के धनी इस मनीषी में दुर्लभ बुद्धि, दुर्लभ प्रतिभा, दुर्लभ सत्यनिष्ठा और अन्य बहुमूल्य गुण थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस अद्वितीय प्रतिभा पुरुष को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था, “चालीस वर्षों से अधिक का समय गुजरा जब हम दोनों साथ हुए स्वतंत्रता संग्राम की धूल और धूप में तथा जेल जीवन की लंबी नीरवता में जहां हमने विभिन्न स्थानों में पांच साल साथ बिताए। हम अगमित अनुभवों और अनुभूतियों के सहयोगी और सहभागी रहे और जैसा कि अवश्यम्भावी था हम एक दूसरे को अंतरंग रूप से जानने और समझने लगे। इसीलिए मेरे लिए उनका निधन एक दुखद हानि है, यह गहरा आघात है और साथ ही देश के लिए भी यह एक बड़ी क्षति है। हमें एक ओर व्यक्तिगत क्षति और पीड़ा का और दूसरी ओर सार्वजनिक जीवन में जो क्षति हुई है उसकी पीड़ा का अनुभव हो रहा है और मन में यह कसक उठती है कि एक श्रेष्ठ गुणवान पुरुष हमारे बीच से उठ गया है और उन जैसा व्यक्ति अब मिलना कठिन होगा।”

आचार्य नरेंद्र देव बुद्धजीवियों की उस पीढ़ी  से थे जो ‘आचार्य जी’ के नाम से जाने जाते थे। अगर आचारवान होना आचार्यत्व की पहली शर्त है तो वे आचार्यत्व की परिभाषा थे। गंगा के समान पवित्र और सागर के समान विस्तृत वैसा व्यक्तित्व अब देखने को नहीं मिलता। जातक कथाओं से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की कहानी का वह निर्झर तथा बात-बात में फुलझड़ी के समान शेरो-शायरी की वर्षा करने वाला वह निर्विकार महापुरुष अपने अलौकिक व्यक्तित्व के लिए युग-युगों तक याद किया जाएगा।

समाजवाद की उदारवादी चिंतनधारा

भारत की राजनीतिक चेतना में जिन व्यक्तियों ने समाजवाद को सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार कर उसे सही रूप में व्याख्यायित किया, उनमें आचार्य नरेंद्र देव का नाम सर्वोपरि था। भारतीय राजनीति में समाजवाद का बीजारोपण होने के बाद उसे आचरित सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी आचार्य जी को ही है। वे समाजवाद के जनक थे। उन्होंने समाजवादी आंदोलन को नई दिशा, नया चिंतन और नया आयाम दिया। साम्यवाद से अलग समाजवाद को इस देश की धरती पर, यहां की परिस्थितियों के अनुसार स्थापित करने और अपने चिंतन के अनुरूप संघर्षमय जीवन जीने वालों में आचार्य नरेंद्र देव का नाम सर्वोच्च स्थान पर रहेगा। वे समाजवादी आंदोलन के सूत्रधार थे। उस आंदोलन में उनके नेतृत्व में मुझे अपने विद्यार्थी जीवन में कुछ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनसे विचार-विनिमय तथा तर्क-वितर्क करने का और शंका समाधान करने के अनेक अवसर कक्षा में और कक्षा से बाहर प्राप्त हुए थे। यहां यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि उन पर जिस भांति लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पं.मदन मोहन मालवीय और डॉ.भगवान दास का भरपूर प्रभाव था, उसी भांति उनके व्यक्तित्व की छाप उनके अनेक शिष्यों पर पड़ी। सादगी और सरलता लोगों ने उनसे सीखी। मूल्यों के लिए संघर्ष करना और उनकी प्राप्ति के लिए कष्ट उठाना लोगों ने उनसे सीखा। कठिन परिस्थितियों में भी संतुलन ना खोना और दुश्मनों से भी शिष्टाचार निभाना, सम्मान देना लोगों ने उनके जीवन से ग्रहण किया। जिन आंखों ने आचार्य नरेंद्र देव को देखा होगा, वे अच्छी तरह जानती हैं कि वे कभी ना बुझने वाली लौ थे। सादगी के ऊपर बुद्धिवाद की ऐसी स्पष्ट झलक होती थी कि उन्हें देख कर कोई भी पहली नजर में समझ जाता था कि वह साधारण मानव नहीं है। लोकप्रियता में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता था। भारत के हर भाग में सुदूर देहातों तक उनके भक्त हैं। कौन, कब, कहां किस तरह से उनसे जुड़ जाता था उसका यदि इतिहास लिखा जाए तो इस विलक्षण व्यक्तित्व का बड़ा चमत्कारी रूप उभरेगा। जो एक बार उनको सुन लेता था वह सदा के लिए उनका विद्धार्थी अथवा शिष्य ही नहीं भक्त बन जाता था। गांधी जी के बाद आचार्य जी ही एक ऐसे नेता थे जिनसे व्यक्तिगत रूप से लाखों लोग अद्भुत रूप से जुड़े थे। शायद उनकी लोकप्रियता का यही कारण भी था।

जैसे सिद्धांत वैसा जीवन

आचार्य नरेंद्र देव का पैतृक घर तो फैजाबाद में था किंतु उनके पिता श्री बलदेव प्रसाद जी सीतापुर में वकालत करते थे। वहीं 31 अक्टूबर 1889 में उनका जन्म हुआ। फैजाबाद, वाराणसी और इलाहाबाद में शिक्षा ग्रहण करते हुए फैजाबाद में वकालत के समय ‘होमरूल लीग’ शाखा का गठन करना निश्चित रूप से उनकी जीवन यात्रा में समाज के विकास की धारा का प्रतिपादक है। काशी विद्यापीठ की स्थापना के समय ख्यातिप्राप्त राष्ट्रभक्त श्री शिवप्रसाद गुप्त ने नरेंद्र देव जी को विद्यापीठ के संचालन के लिए बुलाया। 1921 में वे काशी विद्यापीठ वाराणसी में कुलपति के पद पर आसीन हुए। वे उन इने-गिने लोगों में थे जिन्होंने काशी विद्यापीठ को इस देश की शिक्षा संस्थाओं में एक अद्वितीय स्थान दिया, जिनके व्यक्तित्व ने देश के कोने-कोने से उत्साही, प्रभावशाली देशभक्त विद्यार्थियों को विद्यापीठ की ओर आकृष्ट किया। लोकमान्य तिलक के प्रभाव से नरेंद्र देव जी स्वदेशी के व्रती और स्वराज, ब्रिटिश बायकॉट और राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थक बने। उनका दृढ़ विश्वास था कि विदेशी सरकार से सहयोग राष्ट्र के लिए घातक है। जन-जागृति के द्वारा जनशक्ति के बलबूते पर ही स्वराज प्राप्त करना संभव नहीं है। उन्हें इस बात का संदेह जरूर था कि बिना कुछ हिंसा के राज्य की शक्ति अंग्रेजों से छीनी जा सकेगी पर सशस्त्र क्रांति के अभाव में अहिंसात्मक संघर्ष करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। उनमें एक ही बात झलकती है कि उनके जीवन और सिद्धांत में कहीं कोई द्वैत नहीं था। वे जो कहते थे वही अपने जीवन में उतारने वाले कर्मयोगी थे। उन्होंने सिद्धांतों को जीवन दर्शन के रूप में उतार दिया था।

कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना

आचार्य जी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि- “मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियां रही हैं। एक पढ़ने-लिखने की दूसरी राजनीति की। दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो मुझे परितोष होता। यह सुविधा मुझे काशी विद्यापीठ में मिली।” विद्यापीठ उस समय विद्वानों का संगम स्थल था। उस समय वहां डॉ. भगवान दास, डॉ. संपूर्णानंद, श्री वेद प्रकाश वेद शिरोणमि, पं.रुद्र देव और पं.गांगेय नरोत्तम शास्त्री आदि उच्च कोटि के विद्वान कार्यरत थे। इन विद्वानों के साथ आचार्य जी ने 1921 से काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य आरंभ किया। वे किसानों के बड़े हितचिंतक थे। अवध के चार प्रमुख जिलों रायबरेली, प्रतापगढ़, फैजाबाद और सुल्तानपुर में किसान आंदोलन व्यापक रूप से फैल चुका था। बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में उन्होंने आंदोलन में भाग लिया.। किसानों की मुख्य मांगे थीं कि बेदखली रोकी जाए, बेगार पर रोक लगाई जाए। उनकी किसानों की सभाओं में लाखों की भीड़ होती थी। हिंदू और मुसलमान, स्त्री और पुरुष सभी इसमें सम्मिलित होते थे। 7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज में गोली चली जिसके कारण आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। आचार्य नरेंद्र देव ने किसानों की मांगों का समर्थन करते हुए कई प्रभावशाली भाषण दिए। इन भाषणों की चर्चा सारे अवध में फैल गई और आचार्य जी एक ओजस्वी वक्ता समझे जाने लगे। तपती धूप में हजारों की संख्या में किसान उनकी घंटों प्रतीक्षा करते। वहीं से इनके सक्रिय राजनैतिक जीवन का श्रीगणेश हुआ। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण वे 1930 में पहली बार जेल गए और सन 1942 तक उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला चलता रहा1 7 मई 1934 को कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने समाजवादी दल की स्थापना में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उस समय जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. संपूर्णानंद, श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, अशोक मेहता और अरुणा आसफ अली जैसे त्याग, तपस्या और कर्मठता से अनुप्रमाणित समाजसेवियों ने राष्ट्रहित के महान अनुष्ठान में अपनी सामर्थ्य भर आहुति प्रदान की। भारतीय समाजवाद के प्रकाश स्तंभ के रूप में उनका उदय उसी वर्ष पटना में हुआ जब वे कांग्रेस समाजवादी दल के सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए।

28 मार्च 1938 को उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में शैक्षिक सुधार के निमित्त एक समिति का गठन किया। नरेंद्र देव समिति ने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश की शिक्षा पद्धति के पुनर्गठन के संबंध में बहुत व्यापक ढंग से जांच करके 13 जनवरी, 1939 को जो सुझाव सरकार को दिए, वे अत्यंत उपयोगी थे। इस समिति ने प्राथमिक स्तर पर जीवन और शिक्षा में घनिष्ठ संबंध स्थापित करने पर जोर दिया और बल दिया कि छात्रों को अनुशासनप्रिय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक स्वयं छात्रों का मार्गदर्शन करें। नरेंद्र देव समिति ने यह भी सुझाव दिया कि छात्रों को विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता होने का भी अवसर मिलना चाहिए। सन 1951 में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा समिति गठित की गई। समिति ने हिंदी के पाठ्यक्रम में संस्कृत का प्रारंभिक अध्ययन भी सम्मिलित करने का सुझाव दिया।

राजनेता से पहले शिक्षक

आचार्य जी सच्चे अर्थों में शिक्षक थे। कुलपति के पद को सुशोभित करते हुए भी लखनऊ विश्वविद्यालय में आचार्य जी हम लोगों को प्राचीन भारतीय इतिहास पढ़ाया करते थे। पाली भाषा की कक्षाओं के अध्यापन में विशेष रुचि लेते थे। स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास तो इस तरह पढ़ाते थे कि लगता था जैसे सारी घटनाएं आंखों के सामने घटी हों। आचार्य जी का विचार था कि हम कल्याणकारी राज्य स्थापित करने का दावा करते हैं इसलिए इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए सरकार को काफी संख्या में अध्यापकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, यंत्रचालकों और महाप्रबंधकों की तथा छोटे-छोटे अन्य कार्यों के लिए सुशिक्षित व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ेगी। इसका यह अर्थ होता है कि विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक तथा यांत्रिक शिक्षा की सुविधाओं को विकसित किया जाए। अपने इन विचारों को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से अस्वस्थ्य होते हुए भी अपने मित्रों और शिक्षाविदों के आग्रह पर आचार्य जी ने 1947 में लखनऊ विश्वविद्यालय के और 1951 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रबंध का भार कुलपति के रूप में ग्रहण किया। वे लगभग साढ़े चार वर्ष तक लखनऊ विश्वविद्यालय के और लगभग ढाई वर्ष तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। आचार्य जी ने जब इन विश्वविद्यालयों के प्रबंधन का उत्तरादायित्व ग्रहण किया था, उस समय इनकी दशा काफी चिंताजनक थी। उनके कार्यकाल में इन विश्वविद्यालयों की दशा में आश्चर्यजनक सुधार हुआ। इसका मूल कारण उनका व्यक्तित्व, विद्यार्थियों के प्रति उनकी व्यापक सद्भावना और सहानुभूति, उनकी योग्यता, उनका त्याग और न्यायप्रिय-निष्पक्ष व्यवहार था। आचार्य जी ने दोनों विश्वविद्यालयों में अपने वेतन का चालीस प्रतिशत विद्यार्थियों की सहायता में लगाने का निश्चय किया और दान के आधार पर  ‘छात्र कल्याण निधि’ की स्थापना की। आचार्य जी की सहानुभूति और सद्भावना हर परिस्थिति में विद्यार्थियों के साथ थी। उनका हितचिंतन, उनका मार्गदर्शन आचार्य जी के नेतृत्व का विशिष्ट अंग था। वे विद्यार्थियों के कष्टों और हितों की उपेक्षा को एक महान अपराध समझते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों की आवासीय समस्या को हल करने के लिए ‘कुलपति निवास’ को छात्रावास में परिवर्तित करना एक अनुपम उदाहरण अन्य कुलपतियों के लिए भी था। उन्होंने दोनों विश्वविद्यालयों में ऐसे पाठ्येतर कार्यक्रमों को प्रोत्साहन दिय़ा, जिनके द्वारा विद्यार्थी लोकतांत्रिक नेतृत्व की शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्हें सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यों में भाग लेने तथा समूह के हित को प्रधानता देने का अभ्यास  हो और उनमें आत्मसंयम और आत्मनिर्भरता आदि सद्गुणों का विकास हो। इसी उद्देश्य से लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘कल्चर क्लब’ की स्थापना आचार्य जी के संरक्षण में हुई थी। उस संस्था के सचिव रूप में मुझे आचार्य जी के नेतृत्व में काम करने का अवसर मिला। विश्वविद्यालय में एक नए परिवेश के निर्माण की शुरुआत हुई और यह संस्था विचारशील और प्रबुद्ध विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवृक्ष की छांव बन गई। काशी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में आचार्य जी की प्रेरणा से नव संस्कृति संघ की स्थापना हुई। नव संस्कृति संघ का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था, ‘संस्कृति चित्तभूमि की खेती है। उसी से लोकचित्त का निर्माण होता है।’ ‘समाजवाद और भारतीय परंपरा’ पर बोलते हुए उन्होंने कहा था- “पुरानी परंपरा से आज सहारा नहीं मिलता। आज नए नेतृत्व की आवश्यकता है। समाजवाद ही यह नया नेतृत्व प्रदान कर सकता है। समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक स्वतंत्र सुखी समाज में सम्पूर्ण मनुष्यत्व को प्रतिष्ठित कर सकता है। ”

जब गांधी ने कहा समाजवाद को जानना है तो नरेंद्र देव से जानो

जो भी वे लिख गए हैं दिशा-निर्देशक हैं। उनके ‘समाजवाद लक्ष्य तथा साधन’ को पढ़कर हजारों नौजवान समाजवाद में दीक्षित हुए। वे भारतीय संदर्भ में समाजवाद को विशेषत: मार्क्स की तरह से समझने का दावा कर सकते थे। लुई फिशर महात्मा गांधी से जब वर्धा में मिले और उनसे भारतीय समाजवाद के बारे में जानना चाहा तो महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘अगर भारतीय समाजवाद के बारे में जानना है तो पास की झोपड़ी में जाएं। वहां पर एक दुबला-पतला व्यक्ति मिलेगा जिसका नाम नरेंद्र देव है। उसके मुख से निकली हुई बातें ही भारतीय समाजवाद है।’ कांग्रेस की छत्रछाया में 1934 में समाजवादी विचारों की नींव रखने वालों में आचार्य नरेंद्र देव प्रमुख थे। तब से मृत्युपर्यंत वे बड़ी बेचैनी से अपने विश्वासों के प्रति संघर्ष करते रहे। मार्क्स पर आंतरिक आस्था रखते हुए भी वह गांधी जी के प्रति बराबर विश्वास से भरे रहे। 1951 में आचार्य जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘इलेक्शन मेनिफेस्टो’ पर बिना भेदभाव के पं.जवाहरलाल नेहरू (कांग्रेस), श्यामा प्रसाद मुखर्जी(जनसंघ), डॉ. भीमराव अंबेडकर(रिपब्लिक सोशलिस्ट पार्टी), श्री जयप्रकाश नारायण (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी) और डॉ. जेड. ए. अहमद (कम्युनिस्ट पार्टी) को अपने विचार विद्यार्थियों के समक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने शिष्टाचार की आदर्श मिसाल उपस्थित की।

छात्रों के अपने आचार्य जी

आचार्य नरेंद्र देव लखनऊ विश्वविद्यालय में कितने लोकप्रिय थे इसका अंदाजा तो 1951 में देखने को मिला जब आचार्य जी लखनऊ छोड़कर काशी जा रहे थे। सैकड़ों छात्रों ने उन्हें रोकने के लिए कुलपति कार्यालय के सामने धरना दिया। सूर्य नारायण चौधरी विश्वविद्यालय छात्र यूनियन के अध्यक्ष भूख हड़ताल पर बैठे। वाराणसी में आचार्य जी की काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कुलपति के पद पर नियुक्ति की सूचना मिलते ही छात्रावासों में दिवाली मनाई गई। आचार्य जी का स्वागत महिला विद्यालय की छात्राओं ने आरती उतार कर और पुष्पवर्षा करके किया। वहां के प्रमुख समाचार पत्र ‘आज’ ने लिखा ‘ऐसा स्वागत देवताओं को भी दुर्लभ।’

सरलता और विनम्रता की पराकाष्ठा

आचार्य जी परम मानवीय थे। वे सरल और सह्रदय थे। सभ्य और विनम्र थे। कभी-कभी उनकी सरलता और विनम्रता सारी औपचारिकताओं को भी तोड़ देती थी। ऐसी ही एक घटना 1954 में मेरे साथ घटी। आचार्य जी अपने इलाज के लिए फ्रांस गए थे। फ्रांस की राजधानी पेरिस में उनका उपचार चल रहा था। मैंने यह समाचार रूस की राजधानी मास्को में ‘प्रावदा’ समाचार पत्र द्वारा जाना। सूचना मिलते ही मैंने मास्को के राजदूत श्री के.पी.एस.मेनन से फ्रेंच दूतावास से आचार्य जी के स्वास्थ्य की ताजा स्थिति और पेरिस हवाई अड्डे पर किसी कर्मचारी को भेजकर आचार्य जी का पता देने का निवेदन किया। पेरिस हवाई अड्डे पर आचार्य जी को खड़ा देख कर मेरे मन में अपराध बोध का भाव जाग उठा। आचार्य जी ने मेरी भावनाओं को समझकर बड़े प्यार से कहा,  “फ्रांस में फ्रेंच का ज्ञान ना होने के कारण तुम्हे मेरे पास पहुंचने में कठिनाई होती, इसीलिए मैं स्वयं चला आया।” वे स्वभाव से जितने सरल थे, व्यवहार से उतने शालीन और उदार। अनुशासन के बारे में उतने अडिग भी थे। प्रिय से प्रिय व्यक्ति की अनुशासनहीनता को वे बर्दाश्त नहीं करते थे।

बौदध आस्था और मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धता 

आचार्य जी का प्रारंभिक जीवन बौद्धों की नैतिकता से अत्यधिक प्रभावित था। वे समय निकाल कर बौद्ध केंद्रों की यात्रा भी करते थे। डॉ. जगन्नाथ उपाध्याय के साथ बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर सारनाथ में आचार्य जी को सुनने और उन खंडहरों को भी देखने का अवसर मिला था। उस हरे-भरे उद्यान में उन्होंने आर्य शांति मित्र के ‘बोधिचर्यावतार’ के पद्य भी सुनाए थे जिसका सारांश है, “जब समस्त लोक शोक-दुख से अतिदीन है तो मैं ही इस रसहीन मोक्ष को प्राप्त कर क्या करूंगा ? यदि मैं अपना चित्त दीन-दुखियों के कष्ट निवारण में लगा सकूं तभी मेरा जीवन धन्य होगा। “

बौद्ध धर्म से उनका मोह था और मार्क्सवाद से उनकी प्रतिबद्धता। मृत्यु शय्या पर पड़े-पड़े उन्होंने मृत्यु से मात्र दो दिन पहले ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ पर अपना अप्रतिम ग्रंथ पूरा किया। डॉ.टी.आर.वी.मूर्ति का कहना था कि “ बौद्ध धर्म पर ऐसी समग्र पुस्तक दुनिया की किसी भी भाषा में आज तक लिखी ही नहीं गई। बौद्ध धर्म की जितनी शाखाओं, उप-शाखाओं की उसमें आधिकारिक विवेचना है, बहुतों ने उनका नाम भी नहीं सुना होगा। ” एक बार बौद्ध दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान प्रो.लक्ष्मी नारायण तिवारी ने मुझसे कहा था, “इस ग्रंथ में बहुत सारे ऐसे पृष्ठ हैं जिनका विस्तार करके डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त प्राप्त की जा सकती है।”

नेहरू जी से मेरा परिचय और आचार्य जी का विनोदी अंदाज़

सरल, हास्य और विनोद के आचार्य जी जीवित पुंज थे। सन 1952 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के उद्घाटन के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू आने वाले थे। उनकी अगवानी के लिए छात्र यूनियन और छात्र संसद के पदाधिकारी बाबतपुर हवाई अड्डे पर गए हुए थे। भारत के प्रधानमंत्री से मेरा परिचय कराते हुए आचार्य जी ने कहा कि, “ये बी.एच.यू. कंट्री के प्रधानमंत्री हैं जिनके देश में कोई निरक्षर नहीं है और इनकी संसद में अधिकतर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं।” पं. नेहरू यह सुनकर हंस पड़े और इसके बाद जो ठहाका वहां लगा तो सारा एयरोड्रोम हिल उठा। आज से अड़तालीस साल पहले मैं पिण्डारी ग्लेशियर गया था। कपकोट से अंतिम पड़ाव फुरकिया तक लगभग पचास किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद भी सूर्य के दर्शन नहीं हुए। मैं रात में निराश और उदास होकर लोक निर्माण विभाग का रजिस्टर देखने लगा। पढ़ते-पढ़ते एकाएक आचार्य नरेंद्र देव और श्रीप्रकाश के हस्ताक्षर देख कर रुक गया। आचार्य जी जब पिण्डारी ग्लेशियर की यात्रा पर गए थे तब लगातार बारिश के कारण बर्फ से ढके पहाड़ों का अवलोकन वे लोग ना कर सके थे। अन्तत:  इनकी टिप्पणी थी, “खोदा पहाड़ निकली चुहिया” ।

वे चाहते थे कि विश्वविद्यालय स्तर तक निशुल्क शिक्षा दी जाए तथा समाज के पिछड़े वर्गों के शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। उनके अनुसार विश्वविद्यालयों का कार्य पारंपरिक शिक्षा एवं ज्ञान संप्रेषित करना नहीं है अपितु प्रमुख रूप से शोध एवं ज्ञान के केंद्र के रूप में कार्य करना है तथा देश के युवा वर्ग को जीवन के समस्त पहलुओं में सहभागी बनने एवं नेतृत्व करने के लिए तैयार करना है। वे इस बात के भी समर्थक थे कि माध्यमिक स्तर पर प्रादेशिक भाषाएं शिक्षा का माध्यम हों, तदुपरांत शिक्षा का माध्यम राष्ट्र भाषा होनी चाहिए जो उनके अनुसार हिंदी ही हो सकती है। वे सभी भारतीय भाषाओं के लिए एक ही लिपि के समर्थक थे और उत्तर भारत में दक्षिण भारतीय भाषाओं तथा दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन की अनुशंसा करते थे।

राजनीति में शुचिता के प्रतीक

गांधी जी की बड़ी इच्छा थी कि आचार्य जी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1937 में उनके विषय में सोचा जाता था कि वे उत्तरप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बनेंगे परंतु वे गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 के अंतर्गत मंत्री पद के उत्तरादायित्वों को स्वीकार करने के भी विरुद्ध थे। इसीलिए ये प्रस्ताव भी उन्हें लुभा ना सका। सादा जीवन उच्च विचार तथा लगन के साथ काम करने का अनुशासन ये तीनों ही प्रवृत्तियां उनमें एकाकार होकर आ जमी थीं। गांधी युग में भी आचार्य नरेंद्र देव के नैतिक व्यक्तित्व का राजनीतिक क्षेत्र में एक असीम प्रभाव था। उत्तर प्रदेश विधानसभा में वे कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में चुने गए थे। इसीलिए जब वे कांग्रेस से अलग हुए तो विधानसभा की सदस्यता से त्याग-पत्र दे देना उन्होंने अपना नैतिक कर्तव्य समझा।

आचार्य नरेंद्र देव 19 फरवरी 1956 को शरीर के जीर्ण वस्त्र को त्यागकर उस लोक में चले गए जहां सबको जाना है। वे ऐसे गुरु थे, जिसके अंदर द्रोण की तेजस्विता और व्यास का ज्ञान एक साथ हिलोरें लेता था। उनके शिष्यों की कतार बड़ी ही लंबी थी जिसमें लालबहादुर शास्त्री से लेकर चंद्रशेखर, कृष्णकांत, नारायण दत्त तिवारी, रामकृष्ण हेगड़े, प्रोफेसर राजाराम शास्त्री, रघुनाथ प्रसाद रस्तोगी और पं. कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज़ शामिल थे।

(समाजवाद के प्रहरी से साभार)

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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