नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए शोध डेस्क) : भारत और श्रीलंका के संबंधों की कमजोर कड़ी तमिल मसला है। ये मसला इतना संवेदनशील है कि दोनों देशों के संबंधों में कभी भी खटास का कारण बन सकता है। हालिया, घटना श्रीलंका के तमिल सांसदों का भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम लिखा वो पत्र है जिसमें उनसे श्रीलंका में तमिलों के लंबित मसलों को सुलझाने के लिए प्रयास करने की अपील की गई है। श्रीलंका सरकार ने इस पत्र पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए उन सांसदों को आगाह किया कि श्रीलंका एक संप्रभु राष्ट्र है और इन सांसदों को ध्यान में रखना चाहिए कि उन्हें कोई समस्य़ा है तो वे श्रीलंकाई सरकार से बात करें। श्रीलंका भारतीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस सिलसिले में, कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायोग ने 18 जनवरी को तस्वीरें पोस्ट की थीं। इन तस्वीरों के साथ भारतीय उच्चायोग ने लिखा था कि, आर संपनथन के नेतृत्व में तमिल नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम भारतीय उच्चायोग को एक पत्र सौंपा है।
श्रीलंकाई सांसदों ने मोदी को क्या लिखा
ताजा घटनाक्रम में, उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका के प्रमुख तमिल सांसदों ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में तमिल सांसदों ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े तमिलों से जुड़े मुद्दों को सुलझाने में मदद करने की गुज़ारिश की गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित ये पत्र तमिल नेशनल एलायंस (टीएनए) के नेता आर संपनथन के नेतृत्व में सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायोग को सौंपा। ये पत्र सात पन्नों का है और इसमें श्रीलंका की अलग-अलग सरकारों के उन वादों का जिक्र है जिन्हें अब तक पूरा नहीं किया गया है। पत्र में भारतीय प्रधानमंत्री से आग्रह किया गया है कि वे श्रीलंका के संविधान के 13 वें संशोधन को लागू करवाने में मदद करें। तमिल सांसदों ने अपने पत्र में लिखा कि, उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिल हमेशा बहुमत में रहे हैं। श्रीलंका के संघीय ढांचे के अंतरगत हम तमिल समस्या के राजनीतिक समाधान के लिए प्रतिबद्ध हैं।
श्रीलंका की कड़ी प्रतिक्रिया
श्रीलंकाई सांसदों के भारतीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखने पर श्रीलंका सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। राजपक्षे सरकार के ऊर्जा मंत्री उदया गम्मनपिला ने एक पत्रकार सम्मेलन में कहा कि, अगर, हमारी तमिल पार्टियां संविधान के 13 वें संशोधन को लागू नहीं करने को लेकर चिंतित हैं तो उन्हें श्रीलंका के राष्ट्रपति के पास जाना चाहिए न कि भारतीय प्रधानमंत्री के पास। हम एक संप्रभु देश हैं। श्रीलंका कोई भारतीय संघ का हिस्सा नहीं है। तमिल भाइयों को मुल्क की सरकार के सामने अपनी मांग रखनी चाहिए।
इस मामले में कोलंबो के अखबारों ने भी काफी तीखी खबरें छापी हैं। कोलंबो गजट ने तो मंत्री के बयान को ही अपनी पहली खबर बनाते हुए लिखा कि तमिल सांसद याद रखें, श्रीलंका भारतीय यूनियन का हिस्सा नहीं है।
13 वां संशोधन है क्या और भारत के लिए क्यों है अहम ?
श्रीलंका के संविधान में 13 वां संशोधन 1987 में भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जे. आर. जयवर्धने के बीच समझौते के बाद हुआ था।13 वें संशोधन के ज़रिए श्रीलंता के 8 प्रांतों में प्रांतीय परिषद बनाने की बात कही गई थी ताकि सत्ता का विकेंद्रीकरण हो सके। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, हाउसिंग और भूमि से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार प्रांतीय परिषद को देने की बात थी। भारत चाहता है कि श्रीलंका इस संशोधन को लागू करे ताकि जफ़ना में तमिलों को अपने लिए नीतिगत स्तर पर फ़ैसला लेने का अधिकार मिले सके। दूसरी तरफ, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे ने कहा है कि, श्रीलंकाई संविधान में 13 वें संशोधन की ढंग से समीक्षा के बाद ही इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए जाएंगे।
तमिलों को लेकर भारत पर आरोप
आपको बता दें कि, श्रीलंका अपने यहां तमिल समस्या को लेकर हमेशा से भारत पर आरोप लगाता रहा है। एक समय में तमिल उग्रवाद के कारण श्रीलंका भयंकर गहयुद्ध भी झेल चुरा है। लिट्टे और टल्फ जैसे खतरनाक तमिल उग्रवादी संगठनों ने शीलंकाई सेना के लिए चुनौती पैदा कर दी थी। राजीव गांधी जब देश के प्रधानमंत्री थे उस समय भारत ने तमिल समस्या के समाधान के लिए श्रीलंका में भारतीय शांति सेना को भी भेजा था।
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