(सुदामा पांडे ‘धूमिल’ की जयंती पर विशेष) : सुदामा पाण्डेय यानी धूमिल ताउम्र जिन्दा रहने के पीछे मजबूत तर्क तलाशते रहे। कहते रहे ‘तनों अकड़ो अपनी जड़ें पकड़ो, हर हाथ में गीली मिट्टी की तरह हां-हां मत करो।’ मौजूदा जनतंत्र को मदारी की भाषा कहने वाले धूमिल अपनी कविताओं में दूसरे जनतंत्र को तलाशते रहे। क्योंकि जनतंत्र के नाम पर जंगलतंत्र को वो समझ गए थे।
धूमिल कहा करते थे, ‘दया का एक रूप यह भी है कि जो जाति ठंड के माकूल दिनों में आदमी का खून खींच लेती है, गर्मी के मौसम में पौसरा चलती है।’ कविता न तो धूमिल के लिए मन बहलाने का कोई साधन थी और न ही खुद को श्रेष्ठ बोध कराने का कोई माध्यम, बल्कि कविता धूमिल के लिए ताउम्र व्यवस्था के तिलिस्म को भेदने का एक बेहतरीन जरिया बनी रही, जिसे वो आदमी की तंद्रा भंग करने के लिए इस्तेमाल करते हुए कहते थे, ”जब मैं अपने जैसे किसी आदमी की बात करता हूं, जो साक्षर है पर समझदार नहीं, वह अपने खिलाफ चलने वाली साजिशों का खुलकर विरोध नहीं कर पाता, जब मैं उसे भूख और नफरत-प्यार और जिदंगी का मतलब बताता हूं मुझे कविता में आसानी होती है। जब मैं ठहरे हुए आदमी को हरकत में लाता हूं- एक उदासी टूटती है, ठंडापन खत्म होता है और वह जिंदगी के ताप से भर जाता है।… मेरी कविता इस तरह से अकेले को सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता।”
धूमिल कहा करते थे, ”कविता का एक मतलब और भी है कि आप आज तक और अब तक कितना आदमी हो सके हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो कविता की असली शर्त आदमी होना है।” 9 नवम्बर 1936 को वाराणसी शहर से 12 किलोमीटर दूर वरुणा नदी के कछार में स्थित खेवली गांव में जन्में धूमिल हरिशचन्द्र कालेज में नाम लिखाने के बाद भले ही आगे न पढ़ सके हों, पर जिंदगी के कटु अनुभवों और आदमी को नजदीक से पढ़ने की चाहत रखने वाले धूमिल ने जिंदगी की किताब को पढ़ा, व्यवस्था की मक्कारी को देखा, देश, धर्म, जाति, भाषा के नाम पर आदमी का चेहरा उससे छीन लेने की साजिशों को खूब समझा।
सिर पर एक छत, तन पर कपड़ा और पेट में रोटी के लिए खामोशी की चादर ओढ़ कर बस दिन काटने की मजबूरी की टीस पर ये कहने वाला धूमिल, ”सचमुच मजबूरी है पर जिन्दा रहने के लिए पालतू होना जरूरी है।” जानता था कि यहां आम जन का कोई हमदर्द नहीं है। हां हमदर्दी के नाम पर दुभाषियों का एक गिरोह जरूर है। इन्हीं दुभाषियों के बीच से गुजरकर उसने कहा, ”वे वकील हैं, अध्यापक हैं, वैज्ञानिक हैं, नेता हैं, लेखक, कवि, दार्शनिक, कलाकार हैं यानी कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।’’
आज 2021 है, धूमिल 1975 में मात्र 37 साल की उम्र में अपनी कविताओं में दूसरे जनतंत्र को तलाशते हुए दुनिया को अलविदा कह गए। आज जब फूलों की हंसी के खिलाफ जंजीरें खनखना रही हैं, रिश्ते मुहावरे बदलने की फिराक में हैं, हर हाथ में कहीं न कहीं खून लगा है और इन सबके बावजूद देश के सबसे अच्छे मस्तिष्क आराम से चित्त पड़े हैं, ऐसे में धूमिल की कविता हमसे सीधे संवाद करते हुए कहती है कि
अगर जिन्दा रहने के पीछे
सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या
रंडियों की दलाली करके
रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है।
सोचिएगा कि हम में से कितने आखिरकार जिन्दा रहने के पीछे सही तर्क को तलाशते हैं।
(भास्कर गुहा नियोगी पत्रकार हैं और आजकल वाराणसी में रहते हैं। ये लेख जनचौक डॉट कॉम से साभार लिया गया है)
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