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दिल्ली और केंद्र के बीच घमासान : शीर्ष अदालत ने क्यों की तल्ख टिप्पणी ?

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए एजेंसियां) : दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच जारी घमासान पर सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अहम टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि अगर दिल्ली को उसे ही चलाना था तो फिर चुनी हुई सरकार की क्या जरूरत थी ? मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने दिल्ली में सर्विसेज पर कंट्रोल के मसले पर केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से जमकर सवाल-जवाब किया। शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा कि, इस तरह के विवाद लोकतंत्र के लिए बेहतर संदेश नहीं देते। सरकारों को तालमेल के साथ काम करने की जरूरत है।

विवाद और दलीलें

दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच सर्विसेज़ पर नियंत्रण को लेकर विवाद है। दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार उसके पास होना चाहिए क्योंकि ऐसा न होने से अधिकारी सरकार के आदेश को गंभीरता से नहीं लेते। जबकि, केंद्र सरकार का कहना है कि, ये एक मिथक है। केंद्र ने सर्वोच्च अदालत को बताया कि 1991 में गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली ऐक्ट (GNCTD Act) लागू होने के बाद से ही केंद्र और दिल्ली की सरकार में अलग-अलग पार्टियों ने सौहार्द के साथ शासन किया है। केंद्र की तरफ से दिल्ली सरकार में तैनात अधिकारी पूरे समर्पण और मेहनत से काम करते रहे हैं।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि, पिछले तीन दशकों में एलजी ने दिल्ली सरकार के साथ मतभेद की वजह से सिर्फ 7 मामलों को राष्ट्रपति के पास भेजा है। ऐसे में ये सवाल कहां पैदा होता कि एलजी या नौकरशाह दिल्ली सरकार के कामकाज को रोक रहे हैं? कुछ दूसरे मकसद से कोर्ट के अंदर और बाहर जानबूझकर ऐसी धारणा बनाई जा रही है। अदालतें संवैधानिक सवालों से निपट सकती हैं लेकिन धारणाओं से नहीं।

वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी और एडवोकेट शादान फरासत की दलीलों का जवाब देते हुए सॉलिसिटर जनरल ने मुख्य़ न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह, कृष्ण मुरारी, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा की बेंच को बताया कि 2018 में केंद्र-दिल्ली विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच के पहले फैसले के बाद एलजी ने 18000 से ज्यादा सरकारी फाइलों को मंजूरी दी है। ये फाइलें नीतिगत फैसलों और दूसरे मुद्दों से जुड़ी थीं लेकिन किसी में एलजी ने बिना किसी मतभेद के मंजूरी दी।
आम आदमी पार्टी सरकार की तरफ से अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील दी कि सर्विसेज पर दिल्ली सरकार का पूरा कंट्रोल होना चाहिए, इसमें अधिकारियों के तबादले और तैनाती भी शामिल हैं। उन्होंने कहा कि चुनी हुई सरकार का नौकरशाहों पर नियंत्रण नहीं होने से अधिकारी उदासीन हो रहे हैं और मंत्रियों की बात नहीं सुन रहे। इससे दिल्ली में नीतिगत फैसलों को लागू करना नामुमकिन हो रहा है।

जबाव में मेहता ने कहा कि ये दलील हवाई किला बनाने की तरह है। उन्होंने दलील दी कि, किसी नौकरशाह के लिए एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट बहुत अहम होती है। भले ही दिल्ली सरकार में केंद्र नौकरशाहों की तैनाती करे, लेकिन मुख्यमंत्री ही चीफ सेक्रटरी और अलग-अलग विभागों के प्रिंसिपल सेक्रेटरीज की एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट लिखते हैं। अफसर नाफरमानी या उदासीनता के जरिए अपनी एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट खराब करने का जोखिम नहीं उठा सकते। पिछले तीन सालों में मुख्यमंत्री, बिना किसी अपवाद के दिल्ली सरकार में तैनात नौकरशाहों के एसीआर में कुल 10 अंकों में से 9 या साढ़े 9 देते आए हैं। क्या ये अधिकारियों की नाफरमानी को दिखाता है?

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार अभिमन्यु उपाध्याय के अनुसार, केंद्र में बीजेपी सरकार के आने के बाद से विपक्ष शासित राज्यों के साथ विवाद की स्थितियां कुछ ज्यादा होने लगी हैं। दिल्ली में पहले लंबे समय तक शीला दीक्षित ने कांग्रेस सरकार चलाई और इस दौरान केंद्र में अटल जी प्रधानमंत्री रहे लेकिन कोई विवाद नहीं हुआ। मामला भले संवैधानिक हो लेकिन आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए केंद्र सरकार रोड़े तो अटकाती है। ये साफ दिखता है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार है, उनके भी अधिकार हैं लेकिन बात-बात पर एलजी के जरिए सरकार के फैसलों में रोड़े अटकाना उचित नहीं। अदालतों की भी अपनी मर्यादाएं हैं, अब वे रोजमर्रा के कामकाज तो सिखाने आएंगी नहीं।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया    

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