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बिना टीचर के युनिवर्सिटी…क्या है हकीकत…क्या है फसाना…?

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : देश के विश्वविद्यालयों में स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर वास्तव में सरकार गंभीर है या इस विषय को भी चलताऊ बना कर छोड़ दिया गया है। बात सिर्फ विश्वविद्यालयों तक ही सीमित नहीं है बल्कि एम्स जैसे प्रतिष्ठित चिकित्सा शिक्षा संस्थानों में हालात और भी बुरे हैं।

विश्वविद्यालयों के लिहाज से देखें तो देश में दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों की सबसे ज्यादा कमी है। यहां 900 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। दूसरा नंबर पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय का नाम आता है जहां 622 शिक्षकों के पद रिक्त हैं। दक्षिण की बात करें तो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक मद्रास युनिवर्सिटी में शिक्षकों के 65 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं।  क्षिक्षा मंत्रालय की तरफ से संसद के मानसून सत्र में इस बारे में जानकारी दी गई थी कि देश में 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के कुल 6549 पद खाली हैं।

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने संसद में सरकार की तरफ से पेश एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि, देश में स्थापित 18 नए एम्स में औसतन 45.7 प्रतिशत शिक्षक-डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं। सबसे बुरा हाल एम्स राजकोट का है जहां 78 फीसदी से ज्यादा शिक्षक-डॉक्टरों के पद रिक्त हैं। एम्स राजकोट में कुल 183 पद हैं जिनमें से महज 40 पर नियुक्तिय़ां की गई हैं। एम्स विजयपुर में 183 के मुकाबले 76, एम्स गोरखपुर में 183 के मुकाबले 78, गुवाहाटी में 183 के मुकाबले 79 और एम्स रायबरेली में 183 का जगह सिर्फ 82 तैनातियां की गई हैं।

रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने अपनी तरफ से नियुक्तिय़ों को प्रोत्साहित करने के लिए आयु सीमा में रियायत दी है। प्रोफेसर और एसोशिएट प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए आयुसीमा को 50 से बढ़ा कर 58 साल कर दिया गया है जबकि संविदा पर काम करने के इच्छुक सेवानिवृत्त प्रोफेसरों की उम्र 70 वर्ष कर दी गई है।

स्टेट विश्वविद्यालयों के हालात तो और भी ज्यादा खराब हैं। बिहार जैसे राज्य में तो छात्रों का दावा है कि पढ़ाई के चार-पांच सालों के बाद भी उन्हें डिग्री नहीं मिल पा रही है। छात्रों मगध यूनिवर्सिटी का उदाहरण देते हैं, यहां वाइस-चांसलर, प्रो-वाइस-चांसलर, रजिस्ट्रार और अन्य शीर्ष अधिकारियों को 30 करोड़ रुपए के घोटाले  के आरोप में गिरफ्तार किया गय़ा है। युनिवर्सिटी एक तरह से बंद ही चल रही है। यहां के छात्र पिछले पांच सालों से अपनी स्नातक डिग्री मिलने का इंतजार कर रहे हैं। हालात कितने बदतर हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच सालों में छात्रों को शिक्षकों की मौजूदगी वाली किसी कक्षा में बैठने का मौका तक नहीं मिला है।

शिक्षकों की कमी के पीछे की दलील

शिक्षकों की कमी की वजहों के बारे में सेंट्रल और स्टेट यूनिवर्सिटी के फैकल्टी सदस्यों के अपने-अपने तर्क हैं। इन वजहों में बजट की कमी, योग्य आवेदक न मिलना और विश्वविद्यालयों का दूरदराज के इलाकों में स्थित होना जैसे कारण गिनाए जाते हैं। केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुभाष सरकार ने इस वर्ष शुरू में संसद में एक सवाल के जवाब में बताया था कि शिक्षा मंत्रालय ने सभी केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों से 5 सितंबर 2021 से एक वर्ष की अवधि के भीतर मिशन मोड में रिक्तियां भरने को कहा है। उन्होंने ये भी बताया कि, अगस्त 2021 से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 4000 से ज्यादा पदों के लिए विज्ञापन निकाला जा चुका है, और संबंधित चयन प्रक्रिया जारी है। मंत्री महोदय के दावे के बावजूद, एक साल की यह समयावधि बीतने के बाद भी हालात में सुधार के कोई संकेत नहीं दिखाई दे रहे हैं।

क्या है असली वजह?

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर शिक्षकों की कमी की असली वजह कुछ और बताई। उन्होंने कहाकि, पिछले कुछ वर्षों में विश्वविद्यालयों का बजट लगातार कम हो रहा है। खर्चे बढ़ रहे हैं। सरकार चाहती ही नहीं कि स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति की जाए। सालों में नियुक्तियां आती हैं और वो भी आधी-अधूरी। पढ़ाई ठेके के शिक्षकों के भरोसे चल रही है। संविदा में भी इतना कम पैसा है कि वहां योग्यता को खोजना हास्यास्पद है। इन नियुक्तियों में भी जान-पहचान, जोर-जुगाड़ यही सब काम आता है। उनका कहना है कि, पेशेवर कोर्सेज का काम गेस्ट फैकल्टी से चलता है। वहां भी योग्यता कोई पैमाना नहीं होता। देखा ये जाता है कि, पैसा देकर पढ़ाई करने वाले छात्र कोर्स पूरा करके कहीं छोटी-मोटी नौकरी पा जाएं। उसी हिसाब से गेस्ट फैकल्टी बुलाए जाते हैं। वे कहते हैं कि ठेके पर पढ़ाने वाला शिक्षक अपनी नौकरी को लेकर बेहद असुरक्षित रहता है नतीजतन उसी के ऊपर काम का बोझ लाद दिया जाता है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अन्य शिक्षक इसकी कुछ और वजह भी बताते हैं। वे बताते हैं कि, शिक्षकों की कमी का मामला आजकल का नहीं है। कमी को 1980 के दशक के बाद ही शुरू हो गई थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसमें काफी तेजी आई है। वजह कई हैं, ठेकों पर शिक्षकों की थोक में भर्तियां तो हैं ही सरकार का ध्यान भी क्वालिटी एजूकेशन पर है नहीं। नियुक्तिय़ों और प्रमोशन में खास वर्ग और विचारधारा को तरजीह दी जा रही है। ये गलत है। ये देश के युवा के भविष्य के साथ खिलवाड़ है लेकिन क्या करें पूरा तंत्र ही ऐसे काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि, पिछले वर्ष एक विभाग में एक ऐसे शिक्षक को सुपरसीड करके हेड बना दिया गया जो मीडिया में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता की तरह से बोलता है। अब को ऐसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है।

क्य़ा है रास्ता ?

एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर रामाज्ञा प्रसाद सुझाव देते हैं कि, सरकार को देश की दूसरी सेवाओं की तरह अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय शिक्षा सेवा जैसी परीक्षाएं आयोजित करानी चाहिए और इसके जरिए विश्वविद्यालों में नियुक्तियां होनी चाहिेए। एमफिल-पीएचडी छात्रों को वरीयता देनी चाहिए लेकिन इसे आवश्यक क्राइटेरिया नहीं बनाना चाहिए। इसके अलावा उनका सुझाव है कि, विश्वविद्यालय के शिक्षक का चुनाव करते समय विषयगत जानकारी और प्रशिक्षण के अलावा उसके संवाद कौशल को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। कई बार ऐसा देखा जाता है कि शिक्षक अपनी बात को ही छात्रों को समझा नहीं पाता।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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