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खबरों के खेल में ‘फेक्ट चेक’ का फरमान, क्या है यूपी में नया निर्देश…?

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लखनऊ ( गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र) :  उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से मीडिया को लेकर एक विचित्र फरमान जारी किया गया है। फरमान मीडिया पर निगाह रखने और सरकार की छवि  पर असर डालने वाले समाचारों को लेकर है। सरकार ने फेक्ट चेकिंग के नाम पर एक ऐसा निर्देश जारी किया है जिस पर अपने आप में कई सवाल पैदा हो रहे है।

क्या है निर्देश?

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने इस बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार, गत 16 अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के प्रमुख सचिव संजय प्रसाद ने सभी 18 मंडलों के आयुक्तों और 75 जिलों के जिलाधिकारियों के अलावा संबद्ध अधिकारियों को एक निर्देश जारी करते हुए पत्र लिखा है। पत्र के अनुसार, ‘अगर ये पाया जाता है कि किसी अखबार या मीडिया संस्थान ने राज्य सरकार या जिला प्रशासन की छवि को गलत और भ्रामक तथ्य़ों के आधार पर नकारात्मक समाचार देकर धूमिल करने की कोशिश की है तो संबद्ध जिलाधिकारी उस समाचार पत्र या मीडिया समूह से स्पष्टीकरण मांगने के लिए अधिकृत होगा। स्पष्टीकरण मांगने वाले पत्र को सूचना विभाग को भी मार्क होना चाहिए।’

इस पत्र के बारे में जब मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव संजय प्रसाद से उनका पक्ष जानने की कोशिश की गई तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मुख्यमंत्री सचिवालय से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस निर्देश के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि, इसके पीछे मकसद सिर्फ तथ्यों की जांच है। अधिकारी का कहना था कि, आज तमाम तरह के ऐसे समाचार प्रकाशित हो रहे हैं जो गलत या भ्रामक तथ्यों पर आधारित होते हैं, इससे सरकार की छवि खऱाब होती है और सरकार को सफाई देनी पड़ती है। वे खबरें जब और आगे बढ़ती हैं तो मुश्किल और बढ़ती है।

तस्वीर का दूसरा पहलू

उत्तर प्रदेश सरकार के इस निर्देश का मकसद जो भी लेकिन इतना तो तय है कि इसके संकेत सकारात्मक नहीं हैं। गांवों, तहसीलों, जिलों और राज्य स्तर पर काम करने वाले तमाम पत्रकार समाचारों की दृष्टि से स्थानीय प्रशासन पर सवाल उठाते रहते हैं। वे सरकारी योजनाओं में गड़बड़ी और प्रशासनिक रवैय़े के खिलाफ खबरें भी चलाते हैं। यही नहीं आमतौर पर उनकी कोशिश समाचारों के बारे में संबद्ध जिम्मेदारों से उनका पक्ष जानने की भी रहती है। लेकिन उन्हें जिम्मेदार अधिकारियों से उनका पक्ष हर बार मिल जाए कई बार ऐसा नहीं होता। गड़बड़ी करने वाले और फंसने वाले अधिकारी समाचारों को दबाने या उसके बारे में खुद गलत जानकारी देते हैं। कई मौकों पर जांच के बाद ऐसी बातें सामने भी आई हैं।

समाचार विश्लेषक एवं आरटीआई एक्टिविस्ट अनुज अग्रवाल इस निर्देश के दूसरे आयाम की तरफ इशारा करते हैं। उनका कहना है कि, ‘ये तो वही बात हो गई कि अपराधी भी तुम्हीं, जांचकर्ता भी तुम्हीं और सजा देने वाले भी आप। ऐसा किस लोकतंत्र में होता है? जिला प्रशासन क्यों अपने खिलाफ खबरों को पुष्ट करेगा? कौन से तथ्यों की जांच की अपेक्षा उससे की जा रही है? कुल मिला जुला कर सीन ये बन रहा है कि, कोशिश सरकार और प्रशासन के खिलाफ खबरों को दबाने की है।

अनुज एक और तथ्य की तरफ ध्यान दिलाते हैं कि, जिलाधिकारी स्पष्टीकरण मांगने की कॉपी सूचना विभाग को भी मार्क करेंगे। यानी कहीं न कहीं ऐसा करके ये बतलाने की कोशिश भी की जा रही है कि अगर राज्य सरकार से कोई विज्ञापन वगैरह उस संस्थान को मिलता है तो उस पर बंदिश लगाई जा सकती है।

मीडिया अधिकारों से जुड़े कई संगठनों ने इस निर्देश का विरोध किया है। उनका स्पष्ट रूप से मानना है कि, सरकार की तरफ से इस तरह का निर्देश सिर्फ और सिर्फ मीडिया के अधिकारों का दमन है। स्थानीय़ स्तर पर प्रशासन की तरफ से पत्रकारों के दमन और झूठे केसों की खबरें आए दिन आती रहती हैं। इससे तो वे अधिकारी और बेलगाम हो जाएंगे। सरकार अपने खिलाफ हर खबर को फेक्ट चेंकिंग के नाम पर सवालों के घेरे में लाएगी और पत्रकारों को परेशान करेगी।

वरिष्ठ पत्रकार और आरटीआई एक्टिविस्ट मैथ्यू जॉर्ज पूछते हैं कि आखिर योगी आदित्य नाथ की सरकार को किस बात का भय है, कौन सी खबरों के फेक्ट वे चेक करना चाहते हैं? मिर्जापुर में मिड डे मील को लेकर जिस पत्रकार ने खबर चलाई थी उसे जेल में बंद कर दिया गया। खबर सही थी, जिलाधिकारी के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? हाथरस के मामले में पत्रकार सिद्दीक कप्पन पर देश द्रोह से लेकर ईडी तक के मामले लगा दिए गए। सब फर्जी थे। कौन जिम्मेदारी लेगा? सुप्रीम कोर्ट ने फटकार भी लगाई।

मैथ्यू ज़ॉर्ज के अनुसार, सरकार को सच से डर लगता है। कोई खबर गलत है तो उसके लिए पहले ही उसके पास अपना पक्ष रखने और कार्रवाई का अधिकार होता है। वो तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट को गलत साबित करते हुए मीडिया संस्थानों को अदालत में भी घसीट सकती है, फिर इसकी जरूरत क्यों हैं? ये ईमानदारी के साथ काम करने वाले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर अपरोक्ष दबाव बनाने का उपक्रम है और कुछ नहीं। मैथ्यू अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए देश द्रोह और आतंकवाद की धाराओं में दर्ज मामलों का जिक्र करते हैं जो ऊंची अदालतों में जाकर टिक ही नहीं पाते। बमुश्किल 100 में से एक-दो मामले ही साबित हो पाते हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि ऐसे मामलों में प्रशासनिक और निचली अदालतों की कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती। लोग सालों- साल जेल में रहते हैं और वास्तव में गड़बड़ करने वालों के खिलाफ साबित होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होती।

फोटो सौजन्य़- सोशल मीडिया  

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