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समान नागरिक संहिता… सूत ना कपास-जुलाहों में लठ्ठम-लठ्ठा…

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : एक कहावत है सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम-लठ्ठा। कुछ ऐसा ही हाल, समान नागरिक संहिता या यूसीसी को लेकर देश में इन दिनों चल रही या यूं कह लें कि चलाई जा रही बहसों का है। बेसिरपैर की इन बहसों ने और कुछ किया हो या ना किया हो लेकिन इस बहाने भारत में पत्रकारिता कितने घटिया स्तर की हो सकती है इसे बेहतरीन तरीके से उजागर कर दिया है।

ऐसा लगाता है जैसे-जैसे 24 का चुनाव करीब आता जा रहा है आजकल पत्रकार मानी जाने वाली इन प्रजातियों को भी अपने नाखून तेज करने का निर्देश मिल चुका है। आखिर बहस के लिए मसौदा तो चाहिए ना लेकिन य़हां बहस जारी है और वो भी बिना किसी मसौदे के। हां, उसमें मुसलमान की चर्चा जरूर होती है। टाइम्स टेलीविजन की समूह संपादक ने तो गजब ही कर दिया। कपिल सिब्बल से इस मुद्दे पर बहस शुरू कर दी और वो भी बिना किसी ज्ञान के। ठीक है उनका एजेंडा हो सकता है लेकिन बहस के लिए कोई आधार तो चाहिए ना।

वैसे टाइम्स समूह इस तरह के कारनामे करता रहता है। अभी कुछ दिनों पहले जब प्रधानमंत्री अमेरिका में थे तो इसके हिंदी वाले चैनल के प्रतिनिधि बन कर जो सज्जन वहां गए थे उन्होंने गजब ही कर दिया। अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त सभा में प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद उनके भाषण की प्रतियों पर जब अमेरिकी सांसद उनसे दस्तखत ले रहे थे तो भाई ने इसे ऑटोग्राफ बता दिया। वहां रिवाज है कि संयुक्त सभा को संबोधित करने वाले व्यक्ति के भाषण पर सांसद उससे हस्ताक्षर लेते हैं। हालांकि ये कसीदा सिर्फ इसी चैनल पर नहीं बल्कि लगभग भारत के सभी हिंदी चैनलों पर पढ़ा गया। इससे हिंदी मीडिया के मानसिक स्तर का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

टाइम्स समूह का संदर्भ देना जरूरी था क्योंकि इसी पृष्ठभूमि में यूसीसी पर बहस को देखा जाना चाहिए। आजकल दिखाई देने वाले पत्रकारों के कई संस्करण हैं, कुछ एकदम बिक चुके हैं, कुछ बिकने के लिए लाइन में लगे हैं और कुछ ने कारसेवा अभी शुरू की है। इसके अलावा बमुश्किल कोई और पत्रकार प्रजाति मुख्यधारा की पत्रकारिता में देखने को मिलती है। दुखद है ये स्थिति। रीढ़वाले पत्रकारों के लिए मुश्किल दौर है। हालांकि उम्मीद उन्हीं से है। समानांतर मीडिया ने असल पत्रकारों की इस कौम को जिंदा रखा है।

अब पत्रकारों के इन्ही संस्करणों के संदर्भ में यूसीसी पर होने वाली बहस के कंटेट को समझने की कोशिश करते हैं। यूसीसी को ड्राफ्ट करने वाली कमेटी के चेयरमैन सुशील मोदी हैं। हाल में विभिन्न पार्टियों के प्रतिनिधियों को यूसीसी पर राय देने के लिए बुलाया गया। बैठक के बाद कई प्रतिनिधियों ने जो कुछ बताया वो वास्तव में आश्चर्यजनक था। कांग्रेस के प्रतिनिधि ने बताया कि यूसीसी सिर्फ एक खाली लिफाफा है, अंदर कुछ नहीं। कुछ ऐसी ही जानकारी बीएसपी के प्रतिनिधि मलूक नागर ने दी। इस बीच, सुशील मोदी ने एक शिगूफा छोड़ दिया कि अधिकतर दलों ने सुझाव दिया है कि ओबीसी समुदाय को इस कानून के दायरे से अलग रखा जाए। इशारों- इशारों में वे ये भी कह गए कि सरकार भी कुछ ऐसा ही सोच रही है।

बस बहस चल पड़ी। ये सवाल नेपथ्य से गायब था कि क्या समान नागरिक संहिता पर हुई बैठक का कोई प्रारूप चर्चा के लिए उपलब्ध था या बातें सिर्फ हवा-हवाई हैं। लेकिन चर्चा चल रही है और गजब की चल रही है। चर्चा में बिटविन द लाइंस को समझने वाले भी अपने तरीके से मुसलमान वाले अपने एजेंडे पर खेल जाते हैं।

सवाल दरअसल यही है। क्या समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार सचमुच गंभीर है या इसे भी 2018 की तरह चुनाव के पहले गरमाकर वोट के जुगाड़ का माध्यम बनाया जा रहा है। विधि आयोग तो पहले ही कह चुका है कि समान नागरिक संहिता की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर फिर भी सरकार इस पर आगे बढ़ना चाहती है तो उस पर विस्तृत विचार विमर्श और रायशुमारी की जरूरत है।

सरकार की तऱफ से संकेत दिए जा रहे हैं कि सरकार की इस मसले पर संसद के शरदकालीन सत्र में बिल लाने की योजना है, मॉनसून सत्र में कोई बिल नहीं आने वाला। ऐसा भी बताय़ा जा रहा है कि उत्तराखंड सरकार ने राज्य में समान नागरिक संहिता बिल लाने के लिए एक मसौदा तैयार किया है। केंद्र सरकार चाहती हैं कि पहले उसे लागू करके उस पर प्रतिक्रिया देख ली जाए और फिर केंद्र सरकार इस मसले पर कोई कानून लाए।

अभी बहुत सी बातें हवा में तैर रही है। लेकिन, बहस के विमर्श से असल मु्ददे गायब हैं। मसलन, भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के बीच समान नागरिक संहिता के लिए जगह कैसे बनाई जाए ? इस मुद्दे पर राष्ट्रीय या राज्यवार कानूनों की जरूरत है ?  पूर्वोत्तर में कई राज्यों में बीजेपी के सहयोगी दलों ने ही ऐसे किसी प्रय़ास पर आपत्ति जताई है।

आपको बता दें कि पूर्वोत्तर के कई राज्यों में मातृसत्तात्मक परिवार होते हैं। बच्चे को मां का सरनेम मिलता है और संपत्ति में बंटवारे संबंधी रिवाजों में लड़कियों को लड़के के मुकाबले ज्यादा हिस्सा मिलता है। कई आदिवासी समुदायों में परिवार की सबसे छोटी बेटी ही संपत्ति की वारिस होती है। विवाह संबंघी नियम और परंपराएं भी बहुत अलग-अलग हैं। इन सबके बीच समान नागरिक संहिता के लिए रास्ता कैसे तैयार किया जाए बहस इस पर होनी चाहिए ना कि सरकारी एंजेंडे पर खेलने की जरूरत है।

पूर्वोत्तर राज्यों और देश के आदिवासी इलाकों में सामाजिक स्तर पर काफी काम कर चुके एक्टिविस्ट सुनील हेगड़े समान नागरिक संहिता के सवाल को विशुद्ध राजनीतिक मानते हैं। उनका कहना है कि ये देश सामाजिक, सांस्कृतिक, जाति- मजहब और भाषायी आधार पर  इतनी विविधताओं से भरा है कि यहां सबके लिए एक कानून की बात समझ से परे है। वे कहते हैं कि समान नागरिक संहिता का विचार इसीलिए संविधान के उस खंड में रखा गया जो सरकारों के लिए दिशानिर्देश थे यानी की हालात को देखकर ही इस मामले में कुछ किया जाना चाहिए। हेगड़े कहते हैं कि बेहतर हो कि इस विषय पर बजाए केंद्र सरकार कोई कानून बनाए, राज्य सरकारें अपने हालात और सामाजिक तानेबाने को देखते हुए कदम उठाएं।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया  

 

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