नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : मोबाइल फोन्स, लैपटॉप, टैब्स, टीवी और एसी के साथ ही तमाम तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बढ़ते इस्तेमाल से देश में ई-कचरा लगातार बढ़ रहा है और इसका ठीक से निपटारा नहीं हो पा रहा है। आज हालत ये है कि देश में हर साल करीब 20 लाख टन ई-वेस्ट पैदा हो रहा है और इसमें से महज 0.036 मीट्रिक टन का ही निपटारा हो पा रहा है और वो भी अधकचरे तरीके से। इससे ई-वेस्ट के ढेर तो बढ़ ही रहे हैं, पर्यावरण के लिए भी खतरा पैदा हो रहा है। ये कचरा हवा, पानी और मिट्टी को प्रदूषित कर रहा है। ई-वेस्ट पैदा करने के मामले में भारत दुनिया में पांचवें नंबर पर है। पहले नंबर पर अमेरिका और उसके बाद चीन, जापान, जर्मनी हैं।
ई-वेस्ट का निपटारा ठीक तरीके से हो और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे, इसके लिए भारत सरकार के टेक्नॉलजी डिवेलपमेंट बोर्ड ने एक नई तकनीक को मंजूरी दी है। इसका विकास गुजरात की एक निजी कंपनी ने किया है। कंपनी का दावा है कि उसकी तकनीक ई-वेस्ट का निपटारा वैज्ञानिक तरीके से तो कर ही सकती है, इसके साथ ही इससे ई-वेस्ट में मौजूद कीमती धातुओं की अधिक रिकवरी भी हो सकती है। इसके जरिए जूलरी वेस्ट और ऑटोमोबाइल कैटालिस्ट की रीसाइक्लिंग भी पहले से बेहतर तरीके से हो सकती है। इससे ई-वेस्ट से सोना, प्लेटिनम, पैलेडियम, तांबा और अन्य कीमती धातुओं की बरामदगी बिना प्रदूषण फैलाए हो सकेगी। इसके लिए कंपनी ने सरकार के साथ गुजरात में एक प्लांट लगाने का करार किया है। इसका विस्तार बाद में देश के और शहरों में किया जाएगा।
अभी देश में 178 पंजीकृत ई-वेस्ट रीसाइक्लर्स हैं। इनमें से ज्यादातर के पास रीसाइक्लिंग की उन्नत तकनीक नहीं है। इसके कारण ई-कचरे से धातुओं की रिकवरी भी कम ही होती है और प्रदूषण फैलने का खतरा रहता है। सूत्र कहते हैं कि इनमें से ज्यादातर ई-वेस्ट को स्टोर कर रहे हैं।
बहरहाल, अगर नई तकनीक कामयाब होती है तो इसका प्रसार करके देश में ई-वेस्ट के बोझ को कम किया जा सकता है। साथ ही इससे कीमती धातुओं की रिकवरी बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण का भी भला होगा।
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