कृषि कानूनों को रद्द ना करने की सरकार की सोच के पीछे क्या हैं ठोस वजहें ?

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र):

कृषि कानूनों को लेकर किसान और सरकार आमने-सामने हैं। किसान अपनी मांगों से डिगने को तैयार नहीं वहीं, सरकार भी इन कानूनों को वापस लेने को तैयार नहीं। अब तक सरकार और किसानों के बीच 6 दौर की बातचीत हो चुकी  है। सचिव से लेकर मंत्रिस्तर तक की बातचीत हो चुकी है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के अलावा, रेल मंत्री पियूष गोयल, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह तक बातचीत कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस मामले में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ विचार-विमर्श किया है।

सरकार चाह तो रही है कि कृषि क़ानूनों पर बीच का कोई रास्ता निकल जाए लेकिन, किसान नेता क़ानून वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। केंद्र सरकार ने संकेत देने के कोशिश की है कि सरकार का रुख़ अड़ियल नहीं है और उसने किसानों की मांगों को देखते हुए अपनी तरफ से किसानों के पास कुछ प्रस्ताव भी भेजे। किसानों ने सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है।

ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वो इन कानूनों को वापस लेने से हिचक रही है ? कहीं कोई राजनीतिक, आर्थिक या फिर कोई अंतर्राष्ट्रीय वजह तो नहीं ?

साख की लड़ाई- नाक की लड़ाई

सरकार मानती है कि कृषि सुधारों के लिए इन कानूनों का होना जरूरी है। संसद में उसकी  स्थिति भी इन दिनों काफी मजबूत है और उससके पास संख्याबल की कमी नहीं है। वो किसी भी प्रस्ताव को संसद से पास करा पाने में सक्षम है। बीजेपी के अंदर इस बात को सभी मानते हैं कि ऐसी राजनीतिक मजबूती की स्थिति में सरकार जो कुछ भी करना चाहती  है उसे कर लेना चाहिए। सरकार का मानना है कि कृषि सुधार के लिए ये क़ानून ज़रूरी हैं और इन्हें वापस लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता और उन्हें वापस लेने का मतलब सरकार की साख पर धब्बा।

विरोध के लिए विरोध

केंद्रीय क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अभी दो दिन पहले एक प्रेस कॉफ्रेंस में बताया था कि,  कैसे कांग्रेस, एनसीपी और दूसरे राजनीतिक दलों ने अपने-अपने दौर में इस तरह के क़ानून का समर्थन किया था।

कांग्रेस का साल 2019 का घोषणा पत्र सुनाते हुए उन्होंने कहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने एपीएमसी एक्ट को ख़त्म करने का वादा किया था। शरद पवार की लिखी चिट्ठी बीजेपी के नेता लगातार ट्वीट भी कर रहे हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने तो  तीन में से एक क़ानून लागू भी कर दिया है। दूसरी तरफ़, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल किसानों से मिलने और उन्हें समर्थन देने धरना स्थल भी गए थे। ऐसे हालात में

सरकार को लग रहा है कि राजनीतिक दल केवल विरोध करने के लिए ही नए क़ानून का विरोध कर रहे हैं।

इलाकाई आंदोलन

केंद्र सरकार को ये लगता है कि इन नए क़ानूनों से दिक़्क़त केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों को ही है जबकि इन दोनों राज्यों में मंडी व्यवस्था बाक़ी राज्यों के मुक़ाबले बहुत बेहतर है। बिचौलियों वाला सिस्टम इन्हीं राज्यों में चलता है, जो टैक्स के नाम पर बिना कुछ किए मोटा पैसा कमाते हैं। यही दो राज्य केवल एमएसपी वाली फ़सलें सबसे ज़्यादा उगाते भी हैं। सरकार को लगता है कि इन दोनों राज्यों के बाहर इन नए क़ानून का बहुत ज़्यादा विरोध नहीं है, क्योंकि देश के ज़्यादातर किसान तो अब भी मंडी के बाहर ही अपनी फ़सल बेच रहे हैं। साल 2015 में शांता कुमार कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ़ छह फ़ीसद किसानों को मिल पाता है यानी 94 फ़ीसदी किसानों को एमएसपी का लाभ कभी मिला ही नहीं।

ड्ब्ल्यूटीओ का एंगल

सरकार के इस रूख के पीछे एक अंतरराष्ट्रीय नजरिया भी है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मंच पर भारत अपनी फ़सलों की क़ीमतों का बेहतर मोलभाव नहीं कर पाता है और इसके पीछे की एक वजह भारत की एमएसपी व्यवस्था भी है। अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक़, कोई देश कृषि जीडीपी का 10 फ़ीसदी तक ही किसानों को सब्सिडी दे सकता है। इससे ज़्यादा सब्सिडी देने वाले देशों पर आरोप लगते हैं कि वो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में क़ीमतों को तोड़- मरोड़ रहे हैं। भारत सरकार जिन फ़सलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देती है, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उसे फ़सल पर दी गई सब्सिडी के तौर पर देखा जाता है। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कई बार भारत के गेंहू-चावल की क़ीमतें दूसरे देशों से महंगी साबित होती है और वो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में फ़सलें बेच नहीं पाता।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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