पटना (गणतंत्र भारत के लिए सुनील पांडेय ) : देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए मतदान के पहले चरण में बस कुछ दिनों की देरी है। मगर इस चुनावी समर से एक शख्स गायब है जो पिछले करीब 10 सालों से भारतीय चुनावी राजनीति और रणनीति को सीधे तौर पर प्रभावित करता रहा है। बात हो रही है चर्चित चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की। कई लोगों के दिमाग में ये बात जरूर कौंध रही होगी कि आखिर प्रशांत किशोर कहां हैं और इस चुनावी मौसम में क्यूं शांत हैं ?
चुनावी रणनीति का ‘अर्श काल’
लोक सभा चुनाव 2014 के पूर्व तक प्रशांत किशोर को कोई जानता तक नहीं था लेकिन बिहार का ये युवा लोकसभा चुनाव, 2014 के परिणाम आने के बाद शायद नरेन्द्र मोदी के बाद सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। सफलता सर चढ़ कर बोल रहा थी। भारतीय राजनीति के चुनावी इतिहास में पहली बार लीक से हटकर तकनीक आधारित प्रचार तंत्र को मजबूत करके बीजेपी चुनावी मैदान में उतरी और विपक्षी पार्टियों को चारो खाने चित कर दिया। लोकलुभावन नारों के साथ-साथ मतदाताओं तक पहुंचने और रिझाने के तमाम आकर्षक और सफल, नए और आधुनिक हथकंडे अपनाए गए। इस नए प्रयोग का पूरा श्रेय प्रशांत किशोर को मिला और वे मीडिया में छा गए।
इस सफलता ने प्रशात किशोर की महत्वाकांक्षाओँ को भी पंख दिया और बीजेपी के साथ उनकी बहुत दिनों तक निभ नहीं पाई। प्रशांत किशोर ने रास्ता बदल लिया। देश भर की राजनीतिक पार्टियों ने प्रशांत किशोर से सम्पर्क करना शुरू किया और एक व्यवसायिक नजरिए वाले प्रशांत ने किसी को निराश नहीं किया। आज वही प्रशांत किशोर चुनावी चर्चा से बिल्कुल गायब हैं। इसकी वजह तलाशना बहुत ही लाजमी है। प्रशात किशोर के करियर ट्रैक रिकार्ड के अनुसार देश की तमाम पार्टियों से उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क रहा है। सभी पार्टियां उनके हुनर से वाकिफ हो चुकी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी पार्टियां प्रशांत किशोर को परख चुकी है।
दूसरे रणनीतिकार भी मैदान में
ये भी एक सच है कि 2014 के बाद से परम्परागत तरीके से हट कर चुनावी रणनीति तैयार करने की विधा को जानने समझने वाली कई एजेंसियां अब बाजार में आ चुकी हैं। प्रशांत किशोर इस बात को समझने के बाद हाल ही में सम्पन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के समय ये घोषणा कर चुके हैं कि अब वो व्यक्तिगत रूप से चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम नहीं करेंगे। सच्चाई ये भी है कि पार्टियों की रुचि भी प्रशांत को लेकर घटी है क्योंकि हकीकत में 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रशांत किशोर को वो ऐतिहासिक एकपक्षीय सफलता किसी दूसरे चुनाव में नहीं मिली। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में तो प्रशांत किशोर बुरी तरह अफसल रहे तो बिहार विधानसभा चुनाव 2015 के परिणाम में प्रशांत की जगह लालू फैक्टर ज्यादा हावी रहा। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में भी प्रशांत को फजीहत झेलनी पड़ी थी। इस प्रसंग में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव को भी याद किया जा सकता है। वैसे, प्रशांत किशोर दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के साथ और दक्षिण के राज्यों में भी अपनी दखल दिखा चुके हैं।
क्या प्रशांत किशोर को इग्नोर किया जा सकता है ?
प्रशांत को आप इग्नोर नहीं कर सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि प्रशांत किशोर एक मंजे हुए रणनीतिकार हैं। देश की अधिकांश पार्टियों के साथ काम करने के बाद भी उन पर किसी पार्टी का ठप्पा नहीं लगा है। सूत्रों की माने तों, वे इन दिनों देश में गैर बीजेपी दलों की एका की कोशिश में जुटे हैं ताकि वे एक सशक्त प्रतिरोधी विकल्प तो तैयार कर सकें और बहुत खूबी के साथ उन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर खुद को सामने नहीं रखा है। चुनावी रणनीति के जानकार मानते हैं कि प्रशांत किशोर के पास विभिन्न दलों के लिए रणनीति को तैयार करने का अनुभव है और वे उनकी खूबियों और कमियों को बखूबी समझते हैं। मुख्यधारा की राजनीति में भी उन्होंने हाथ आजमा लिया है। उन्हें इस बात की समझ हो चली है कि राजनीति दलों में रणनीतिकार की एक हद तय होती है और उससे आगे उसका रास्ता बंद हो जाता है। जेडी (यू) और कांग्रेस में मिले राजनीतिक अनुभव से उन्हें ये सीख तो मिल ही चुकी है कि राजनीति का माहिर खिलाड़ी वही है जो सही समय पर ही अपने पत्ते खोले। राजनीति में प्रशांत किशोर का परोक्ष होना शायद सही वक्त पर अपने पत्ते खोलने की रणनीति का हिस्सा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फिलहाल एमिटी शिक्षण संस्थान से जुडें हैं )