नई दिल्ली 07 अक्टूबर (गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी ) : अदालती आदेश के बाद चुनाव आयोग फ्री बीज़ यानी मुफ्त की रेवड़ियों को लेकर थोड़ी सक्रियता दिखा रहा है। उसने ऐसी सुविधाओं की उपलब्धता कैसे सुनिश्चित होगी और इसका पैसा कहां से आएगा इसका ब्यौरा उन राजनीतिक दलों से मांगा है जो चुनावी मौसम में ऐसे वादे जनता से करते हैं। इन वादावीरों में बीजेपी और आम आदमी पार्टी सबसे अव्वल राजनीतिक दल हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल चुनावी बॉंड को लेकर है। दलील दी गई थी कि बॉंड चुनाव सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा और इससे चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर रोक लगेगी।
क्या ऐसा हो पाया ?
चुनावी बॉंड को लोकतंत्र के साथ खिड़वाड़ करने वाला बताते हुए इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। बॉंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहले भी याचिका आ चुकी है। अब मामले पर दोबारा सुनवाई होगी। चुनावी बॉंड का चलन 2018 में बीजेपी सरकार ने शुरू किया। ये बॉंड एक निश्चित समय़ावधि के लिए जारी होते हैं और उन पर ब्याज़ नहीं दिया जाता। ये 1000 से लेकर एक करोड़ रुपए तक के हो सकते हैं और इन्हें कुछ निर्धारित बैंकों से साल में एक बार खरीदा जा सकता है। केवल उन पंजीकृत राजनीतिक दलों को ही बॉंड के जरिए चंदा मिल सकता है जिन्होंने पिछले संसदीय या विधानसभा चुनावों में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल किया हो। भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी बॉंड खरीदने का हकदार है। दान मिलने के 15 दिनों के भीतर राजनीतिक दलों को इसे भुनाना होता है।
अमेरिका के बाद भारत में सबसे महंगे चुनाव
आपको जानकर आश्चर्य़ होगा कि भारत में 2019 में हुए आम चुनावों में अनुमानित तौर पर 7 अरब डॉलर की रकम खर्च हुई थी जो पूरी दुनिया में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों पर होने वाले खर्च के बाद सबसे बड़ा चुनावी खर्च है।
क्या कहते हैं रिकॉर्ड और किसे मिला फायदा ?
भारत में चुनावों और राजनीतिक दलों पर निगरानी रखने वाली संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स ने अपनी रिपोर्ट में इस बारे में कुछ आंकड़े जारी किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2019 से 2021 के दौरान सात राष्ट्रीय पार्टियों की 62 प्रतिशत से ज़्यादा आमदनी इलेक्टोरल बॉंड से मिले चंदे से हुई। रिपोर्ट में सरकारी आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि, अब तक 19 किस्तों में 1.15 अरब डॉलर के चुनावी बॉंड बेचे जा चुके हैं। फायदे की बात करें तो इससे सबसे ज्यादा फायदा सत्ताधारी भारतीय़ जनता पार्टी को हुआ है और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को बहुत कम लाभ हुआ। बीजेपी को चुनावी बॉंड का दो-तिहाई हिस्सा हासिल हुआ जबकि कांग्रेस को महज 9 प्रतिशत चुनावी बॉंड का चंदा मिला।
काले धन पर रोक या काले धन का जरिया ?
2017 में जब चुनावी बॉंड लाने की घोषणा की गई थी तो बहुत से सांसदों समेत चुनाव आयोग ने इसे लेकर कई तरह के सवाल खड़े किए थे। कहा गया था कि इससे चुनावी पारदर्शिता पर असर तो पड़ेगा ही साथ ही चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा। सवाल उठाए गए थे कि, बॉंड को लेकर राजनीतिक दलों को गोपनीयता बरतने के अधिकार से तमाम ऐसे लोगों और पूंजीपतियों के बारे में ऐसी जानकारी छिपी रह जाएगी जो उन्होंने चुनावी बॉंड पर खर्च किया और जिस पर टैक्स दिया जाना चाहिए था।
इन सवालों में वाकई दम था क्योंकि आगे हुए चुनावों में इस तरह की बातें समाने आईं। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपनी आय के स्रोत्रों के बारे में जानकारी को गुप्त ऱखा और उसे अनाम बताया। चुनाव आयोग जो पहले इसका विरोध कर रहा था एक साल बाद वो भी इसके समर्थन में खड़ा हो गया।
चुनाव सुधारों पर काम करने वाले अधिकतर विशेषज्ञ मानते हैं कि चुनावी बॉंड को लेकर सार्वजनिक रूप से कोई जानकारी उपलब्ध न होना इसकी सारी उपायदेयता पर प्रशनचिन्ह ख़ड़ा कर देता है। हालांकि बैंकों के पास इसके खरीदारों और किसको चंदा दिया गया इस बारे में पूरी जानकारी होती है लेकिन इसे गुप्त रखा जाता है। राजनीतिक दल भी इस बारे में जानकारियों को छिपाना चाहते हैं इसलिए वे भी पर्दे के पीछे से फायदा उठाते रहते हैं। इस मामले में सत्ताधारी दल को सबसे ज्यादा फायदा हो सकता है और हुआ भी वही।
आपको बता दें कि, भारत में राजनीतिक दलों को हर साल अपनी आमदनी और ख़र्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को देना पड़ता है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, अधिकतर राजनीतिक दल अपनी आय के तकरीबन दो-तिहाई हिस्से के स्रोत्र अज्ञात बताते हैं यानी दो-तिहाई पैसा कहां और किसने दिया राजनीतिक दल इसे छिपा जाते हैं। रिपोर्ट मे बताया गया है कि, इन अज्ञात स्रोत्रों में एक बड़ी हिस्सेदारी इलेक्टोरल बॉंडों की होती है।
हालांकि कई विशेषज्ञ मानते हैं कि पहले के चुनावों के मुकाबले चुनावी बॉंड एक बेहतर माध्यम है। पहले तो सारा चुनाव ही कैश पर टिका होता था। अब कम से कम चुनावी चंदे के रूप में मिली आय का एक बड़ा हिस्सा रिकॉर्ड पर आया तो। दानदाताओं के नाम और पार्टी के नाम सार्वजनिक करके इसे और अधिक पारदर्शी बनाया जा सकता है।
संसदीय लोकतंत्र में चुनावी फंडिंग को लेकर काम करने वाली संस्था वैल्यू फॉर वोट ने सुझाव दिया है कि, राजनीतिक दलों की आय और खर्च की समस्या दुनिया के तमाम देशों में है और सत्तारूढ़ दल इसका जमकर फायदा उठाते रहे हैं। सबसे बेहतर विकल्प तो यही है कि चुनाव सरकारी खर्च पर हों और ऐसे सारे चंदे चुनाव आयोग के कोश में जमा हों।
फोटो साभार—डेक्कन हेरल्ड