नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : We the people of India यानी हम भारत के लोग यही हमारे संविधान की प्रस्तावना का उद्घाटन वाक्य है। सीधा, सरल और सारगर्भित। 26 नवंबर 1949 को इसी संविधान को अंगीकृत और स्वीकार किया गया। समय-समय पर इस संविधान में संशोधन होते रहे लेकिन इस संविधान के मूल ढांचे को छेड़े बिना। प्रस्तावना में वर्णित संविधान की मूल भावना में देश का संघीय ढांचे, गणतंत्र और संप्रभुता के अलावा 1976 में जोड़े गए धर्म निरपेक्ष एवं समाजवाद जैसे शब्द शामिल हैं।
धर्म निरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने का सवाल मौजूदा राजनीतिक संदर्भों में बहुत पेचीदा बन चुका है। आजादी के बाद देश में तमाम सराकरें आई और गईं लेकिन कभी भी इन शब्दों को लेकर संविधान की प्रस्तावना को कठघरे में नहीं खड़ा किया गया जितना कि केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काम कर रही बीजेपी सरकार के कामकाज के दौरान किया जा रहा है।
धर्म निरपेक्षता और समाजवाद के सवाल शीर्ष अदालत में
भारतीय संविधान को लेकर हमेशा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध समेत तमाम हिंदूवादी संगठनों को आपत्ति रही है। भारतीय संविधान में कई ऐसे विचार या अवधारणाएं हैं जिन पर इन संगठनों का विरोध रहा है। संविधान की मौलिक प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे, इन्हें बाद में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रस्तावना में जोड़ा गया। कई तरह की विधिक चुनौतियों को झेलते हुए ये शब्द किसी तरह से संविधान की मूल प्रस्तावना में बने रहे। हाल-फिलहाल में धर्म निरपेक्ष और समाजवाद शब्द को संविधान की प्रस्तावना से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया।
धर्म निरपेक्षता और समाजवाद की प्रासंगिकता क्यों ?
भारत का संविधान आज जितना खतरे में है उतना शायद पहले कभी रहा, यही वो वजह भी है कि आज संविधान की प्रासंगिकता पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में संभल और उससे पहले बहराइच हाल की दो ऐसी सांप्रदायिक घटनाएं हैं जहां खुलेआम प्रशासन और सरकार की तरफ से इन दो शब्दों को चुनौती दी गई। सरकार और प्रशासन से नागरिकों में बिना भेदभाव के काम करने की अपेक्षा की जाती हैं लेकिन हुआ क्या ? वहां से मिली तस्वीरों से साफ जाहिर है कि अदालत से लेकर प्रशासन तक सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ऐसे में संविधान से मिलने वाला संरक्षण ही एकमात्र उम्मीद की किरण है।
‘नाउम्मीदी’ एक घातक संकेत
सरकार और प्रशासन से जनता के एक बड़े वर्ग का नाउम्मीद हो जाना बहुत ही घातक संकेत होता है। संभल और बहराइच में जिस तरह से एकतरफा कार्रवाई की गई उससे जाहिर होता है कि उत्तरप्रदेश में योगी आदित्य नाथ की सरकार देश में खतरनाक सांप्रदायिक एजेंडे पर काम कर रही है और उसकी सीधी चोट देश के धर्म निरपेक्ष स्वरूप पर है। कुछ समय पहले नवरात्रि के दिनों में योगी आदित्य नाथ की सरकार ने जिस तरह से ठेला-रेहड़ी लगाने वालो को अपना नाम ठेले पर लिखने का आदेश जारी किया था वह भी इसी क्रम की पूर्व कड़ी थी। मकसद, मुसलमानों को आर्थिक रूप से कमजोर करना था। क्या ये देश में लोकतांत्रिक सरकारों के काम काज का तरीका होना चाहिए?
सेकुलर बना ‘सिकुलर’ और सोशलिस्ट बना ‘वामिया’
हालांकि, ये सिकुलर और वामिया जैसे शब्द गढ़ने और गुनने वालों का बुद्धि और तर्क कौशल हमेशा से संदेहास्पद रहा है लेकिन फिर भी जिस तरह से इन शब्दों के जरिए तर्क और तथ्यों के पक्ष के खड़े लोगों का उपहास उड़ाने की कोशिश की जाती है वो दरअसल देश के संविधान की मूल भावना पर ही चोट करने का प्रतीकात्मक प्रयास होता है।
जनता को बचाना होगा संविधान और देश
सत्ता की राजनीति का मूल चरित्र एक ही होता है। राजनीतिक दल कोई भी हो। चुनाव हमेशा कम और ज्यादा बुरी ताकतों के बीच करना होता है। भारत में अच्छी बात ये है कि, दक्षिण भारत में कमोवेश देश के उत्तरी राज्यों में जो जहर फैल चुका है उसकी पैठ नहीं हो पाई है। उसकी वजह है वे शैक्षिक, आर्थिक और दूसरे कई पैमानों पर उत्तर के राज्यों से बेहतर स्थिति में हैं।
सुप्रीम कोर्ट के, पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने लीगल रिपोर्टर नाम के कार्यक्रम में देश के मौजूदा हालात को लेकर सरकार से कुछ बहुत ही तल्ख और सीधे सवाल किए। उन्होंने कहा कि ‘लड़ाई जनता को लड़नी है राजनीतिक दलों से कोई उम्मीद करना ही बेकार है। कांग्रेस ने भी अपने समय में काफी गलतियां कीं यही वजह है कि वे आज कुर्सी पर नहीं हैं।‘ जस्टिस काटजू ने कहा कि, ‘लेकिन मौजूदा चुनौती कहीं बड़ी है, आज सुप्रीम कोर्ट तक तमाम फैसले ऐसे करता है जिससे समाज में और भ्रम की स्थिति बन जाती है और सरकारें अपना एजेंडा सेट करने में उसका फायदा उठाती है।‘
फोटो सौजन्य : सोशल मीडिय़ा