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‘पारंपरिक’ और ‘देसी’ इलाज पद्धति में म़ॉडर्न मेडिसिन की जड़ों की तलाश….!

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गांधीनगर / नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी) : एक आम भारतीय परिवार में दादी मां के नुस्खे किसी हल्की फुल्की शारीरिक तकलीफ में फौरी राहत के घरेलू फार्मूले के रूप में जाना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज भी दुनिया की 80 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति का इस्तेमाल कर रही है। इसमें घऱेलू से लेकर प्रकृतिजन्य चिकित्सा विशेष रूप से शामिल है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों में भी इस बात की तस्दीक की गई है कि आज भी दुनिया की करीब 80 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में पारंपरिक औषधियों का उपयोग कर रही हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ये पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां आज के आधुनिक युग में भी कारगर हैं। भारत, चीन और कई अफ्रीकी देशों में तो आज भी इनको बहुत अधिक महत्व दिया जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन से मिली जानकारी के अनुसार, उसके 194 में से 170 सदस्य देशों ने जानकारी दी है कि वे आज भी स्वास्थ्य क्षेत्र में पारंपरिक औषधियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके महत्त्व को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन, गांधीनगर गुजरात में 17 अगस्त से दो दिनों के विश्व शिखर सम्मेलन का आयोजन कर रहा है। इस सम्मेलन की सह मेजबानी भारत कर रहा है।

सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक व क्षेत्रीय निदेशक के साथ जी 20 देशों के स्वास्थ्य मंत्री भी शामिल हो रहे हैं। इस सम्मलेन के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े सभी देशों से उच्च-स्तरीय सदस्यों को बुलाया गया है। साथ ही पारंपरिक औषधियों के विशेषज्ञ, स्वास्थ्यकर्मी और सिविल सोसायटी के सदस्य भी इस सम्मलेन में शामिल हो रहे हैं।

पारंपरिक औषधि व चिकित्सा से तात्पर्य आदिवासी समुदायों व अन्य संस्कृतियों द्वारा सहेजे गए ज्ञान, कौशल व प्रथाओं के उन भण्डार से है, जिनका उपयोग स्वास्थ्य को बनाए रखने के साथ शारीरिक व मानसिक बीमारियों की रोकथाम, निदान व उपचार में किया जाता है।

पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों पर मंथन

सम्मेलन में, स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने के साथ दुनिया भर में लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के उपयोग की सम्भावनाओं पर विचार-विमर्श किया जाएगा। सम्मलेन के दौरान वैज्ञानिकों और अन्य विशेषज्ञों के नेतृत्व में पारंपरिक चिकित्सा से जुड़े विभिन्न विषयों जैसे शोध, ज्ञान, नीतियों, साक्ष्यों, आंकड़ों, इनोवेशन और डिजिटल स्वास्थ्य के साथ ही जैव विविधता, समानता और मूल निवासियों के पारंपरिक ज्ञान पर चर्चा की जा रही है।

इस सिलसिले में विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई है जिसमें महानिदेशक डॉक्टर टैड्रॉस ऐडहेनॉम घेबरेयेसस ने कहा है कि, पारंपरिक चिकित्सा, स्वास्थ्य देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। साथ ही ये सभी तक स्वास्थ्य व्यवस्था की पहुंच और स्वास्थ्य से जुड़े वैश्विक लक्ष्यों की पूर्ति में अहम और उत्प्रेरक भूमिका निभा सकती है।

उन्होंने कहा कि, पारंपरिक चिकित्सा को विज्ञान की कसौटी पर परख कर समुचित और प्रभावी तरीके से स्वास्थ्य देखभाल की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है। इससे दुनिया भर में करोड़ों लोगों तक स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता में मौजूद खाइयों को भरने में मदद मिल सकती है।

पारंपरिक एवं पूरक चिकित्सा पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट से बताय़ा गया कि दुनिया भर में उपयोग की जा रही पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में, एक्यूपंक्चर, हर्बल दवाएं, स्वदेशी पारम्परिक चिकित्सा, होम्योपैथी, पारम्परिक चीनी चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, कायरोप्रैक्टिक, ऑस्टियोपैथी, आयुर्वेद व यूनानी उपचार आदि शामिल हैं। आज भी करीब 40 फीसदी दवाओं और फार्मास्युटिकल उत्पादों का आधार प्राकृतिक उत्पाद हैं।

पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक इलाज

इसे प्राकृतिक चिकित्सा का कमाल ही कहेंगे कि, एस्पिरिन और आर्टेमिसिनिन जैसी बेहद अहम दवाओं की खोज पारंपरिक चिकित्सा से हुई है। मलेरिया के इलाज के लिए करीब ढाई लाख असफल परीक्षणों के बाद, चीनी वैज्ञानिक तू योयो ने पारंपरिक चीनी चिकित्सा पर उपलब्ध पारंपरिक जानकारियों पर रुख किया। जहां उन्हें बार-बार आने वाले बुखार के इलाज के लिए मीठी कीड़ाजड़ी के बारे में जानकारी मिली। उनकी टीम ने 1971 में इस मीठे वर्मवुड से एक सक्रिय यौगिक, आर्टेमिसिनिन को अलग किया जो मलेरिया के इलाज में बहुत प्रभावी था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मलेरिया के इलाज के लिए आर्टेमिसिनिन को मान्यता दी है।

जहां  तक  ‘एस्पिरिन’ की बात है तो इसका आधार, विलो पेड़ की छाल है। ये दवा प्रकृति और पारंपरिक ज्ञान के समन्वय से आधुनिक चिकित्सा में हुई प्रगति की एक जीवंत मिसाल है। करीब साढ़े तीन हजार साल पहले, सुमेरियन व मिस्रवासी विलो पेड़ की इस छाल का उपयोग, दर्द को दूर करने के साथ सूजन को रोकने के लिए करते थे। बाद में, प्राचीन ग्रीस में इसे प्रसव के दौरान होने वाली पीड़ा को कम करने के साथ बुखार से निजात पाने के लिए किया जाने लगा। 1897 में, बेयर कैमिस्ट फेलिक्स हॉफमैन ने इस छाल से एस्पिरिन को अलग किया और इससे बनी दवा हर दिन लाखों लोगों का जीवन सुधारने या बचाने के लिए इस्तेमाल की जाने लगी। दिल के दौरे या स्ट्रोक को रोकने, रक्तचाप में सुधार, दर्द व सूजन से निजात पाने के साथ इसके अनगिनत फायदे सामने आ चुके हैं। वर्तमान में, एस्पिरिन दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली दवाओं में से एक बन चुकी है।

योग का डंका

डब्ल्यूएचओ के पारंपरिक चिकित्सा विशेषज्ञ परामर्श समूह की सह-अध्यक्ष डॉक्टर सूज़न वीलैंड के अनुसार, 20 से अधिक ​​​​परीक्षणों से पता चला है कि योग, पीठ के पुराने दर्द व रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्याओं के लिए बेहद प्रभावी है। वहीं जब दर्द से राहत की बात आती है तो यही बात एक्यूपंक्चर पर भी लागू होती है।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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